SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६५ २.६. श्रुतसागर सूरि की भूल-तत्त्वार्थवृत्तिकार श्रुतसागरसूरि (१५वीं शती ई०) ने भी अपराजित सूरि के अभिप्राय को समझने में भूल की है। यह उनके निम्नलिखित वक्तव्य से ज्ञात होता है। अपवादलिंग का वर्णन करते हुऐ वे लिखते हैं "केचिदसमर्था महर्षयः शीतकालादौ कम्बलशब्दवाच्यं कौशेयादिकं गृह्णन्ति, न तत् प्रक्षालयन्ति, न सीव्यन्ति, प्रयत्नादिकं न कुर्वन्ति, अपरकाले परिहरन्ति। केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषा लजितत्वात् तथा कुर्वन्तीति व्याख्यानमाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम्।" (तत्त्वार्थवृत्ति / ९/४७ / पृ.३१६)। अनुवाद-"कोई असमर्थ मुनि शीतकाल आदि में कम्बल शब्द से वाच्य कौशेय वस्त्र आदि ग्रहण कर लेते हैं, किन्तु वे उसे धोते नहीं हैं, न सीते हैं, न उसकी रक्षा का प्रयत्न करते हैं। शीतकाल बीत जाने पर उसे त्याग देते हैं। कुछ मुनि शरीर में कामविकार उत्पन्न होने पर लज्जावश वस्त्रधारण कर लेते हैं। यह व्याख्या भगवतीआराधना में कहे हुए अभिप्राय के अनुसार अपवादरूप से जाननी चाहिए।" यहाँ स्पष्ट है कि अपराजितसूरि ने भगवती-आराधना की टीका में जो यह उल्लेख किया है कि श्वेताम्बर-आगमों में साधु के लिए तीन परिस्थितियों में अपवादरूप से वस्त्रग्रहण की अनुमति है, उसे श्रुतसागरसूरि ने अपराजितसूरि का स्वकीय मत मान लिया है, बल्कि भगवती-आराधना का मत समझ लिया है। वे देशव्रती ब्रह्मचारी थे, साथ ही भट्टारक भी। इसलिए तथ्यों की गहराई में गये बिना उनके द्वारा ऐसा मान लिया जाना उसी प्रकार संभव है, जैसे पं० नाथूराम जी प्रेमी एवं श्रीमती डॉ० कुसुम पटोरिया के द्वारा संभव है। तत्त्वार्थसूत्र के "द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः" (५/४१) सूत्र में निर्गुणाः विशेषण की व्याख्या भी उन्होंने सिद्धान्त के विरुद्ध की है। उनके और भी अनेक कथन सिद्धान्तविरुद्ध हैं।७५ पूर्वोक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि अपराजितसूरि ने एकमात्र अचेललिंग को मुनिलिंग कहा है और सचेललिंग को गृहिलिंग तथा उसे मुनि के लिए निन्दनीय बतलाया है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि अपराजितसूरि ने आचेलक्य को ही मोक्ष का सार्वभौमिक, सार्वकालिक और एकमात्र मार्ग सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इसी प्रसंग में यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि श्वेताम्बरआगमों में भी आचेलक्य को ही एकमात्र मोक्षमार्ग बतलाया गया है। उनमें जो वस्त्रधारण करने के उल्लेख हैं, वे विशेष परिस्थितियों से सम्बद्ध हैं और मोक्ष के लिए त्याज्य हैं। वे दिगम्बरमत में क्षुल्लक और एलक की व्यवस्था के अनुरूप हैं। इस प्रकार उन उल्लेखों को उद्धृत कर अपराजितसूरि ने श्वेताम्बरमत का ही प्रदर्शन किया है, अपने मत का नहीं। ४४. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा / खण्ड ३/ पृ. ३९१ । ४५. तत्त्वार्थवृत्ति/प्रस्तावना : पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य / पृष्ठ ९६-९७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy