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________________ १६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ उपकरण रखता है । ३९ अपराजितसूरि कहते हैं कि चौदह प्रकार की उपधि रखने पर प्रतिलेखना अधिक करनी पड़ती है, जो हिंसा का हेतु है । अचेल मुनि उससे मुक्त रहता है। तथा कमण्डलु और पिच्छी को छोड़कर शेष वस्तुएँ संयम का साधन नहीं हैं। ४१ जहाँ श्वेताम्बर शास्त्रों में उपधि को संयम का उपकरण कहा गया है, वहाँ अपराजितसूरि ने उपधि को कर्मबन्ध का हेतु बतलाया है । ४२ श्वेताम्बरग्रन्थ कहते हैं कि जिनकल्पिक साधु वस्त्रग्रहण इसलिए नहीं करते थे कि उनके पास वस्त्र के अभाव में भी नग्न न दिखने की लब्धि (ऋद्धि) होती थी, अतः वे अनावश्यक थे, ४३ जब कि अपराजितसूरि का कथन है कि मुनि के वस्त्रग्रहण न करने का कारण यह है कि वे मोक्ष के उपाय नहीं हैं, अपितु मोक्ष में बाधक हैं। दिगम्बराचार्य अपराजितसूरि के समान यापनीय भी ( जो श्वेताम्बरों से ही उत्पन्न हुए थे) इस लब्धिविषयक श्वेताम्बरमत से सहमत नहीं थे, क्योंकि जहाँ श्वेताम्बर यह मानते हैं कि लब्धि का अभाव हो जाने पर जिनकल्पिकों का अस्तित्व जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद समाप्त हो गया, वहाँ यापनीयसम्प्रदाय में १५वीं शती ई० तक जिनकल्पी साधु होते रहे, जिसका तात्पर्य यह है कि जिनकल्पी (नग्न) साधु होने के लिए लब्धि आवश्यक नहीं थी । अपराजितसूरि की ये मान्यताएँ श्वेताम्बरमत की सभी मौलिक मान्यताओं को मोक्षविरोधी घोषित करती हैं । वस्त्रपात्रादिपरिग्रह को मोक्ष का अनुपाय, संयम में बाधक और मूर्च्छाहेतु मानने से अचेलता को ही निर्ग्रन्थता स्वीकार करने से तथा एकमात्र तीर्थंकरलिंग को ही मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित करने से सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति और अन्यलिंगिमुक्ति के सारे सिद्धान्त जिन पर श्वेताम्बरमत एवं यापनीयमत अवलम्बित हैं, अपराजितसूरि को अमान्य हो जाते हैं। ३९. “एसो दुवालसविहो उवही जिणकप्पिआणं तु । - - - सम्प्रत्येकः स्थविरकल्प एव तद्वान् पुनर्जघन्यतोऽपि चतुर्दशोपकरणवानेव । " प्रवचनपरीक्षा १/२/३१/ पृ.९४-९५ । ४०. " चतुर्दशविधमुपधिं गृह्णतां बहुप्रतिलेखनता, न तथाचेलस्य ।" विजयोदयाटीका / भगवती आराधना / 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ. ३२२ । ४१. “संयमः साध्यते येनोपकरणेन तावन्मात्रं कमण्डलुपिच्छमात्रम् । --- अवशिष्ट उपधिर्नाम पिच्छान्तरं कमण्डल्वन्तरं वा तदानीं - - - संयमसाधनं न भवति । येन साम्प्रतं संयमः साध्यते तदेव संयमसाधनमथवा ज्ञानोपकरणमवशिष्टोपधिरुच्यते ।" विजयोदयाटीका / भ.आ./गा. 'संजम - साधणमेत्तं' १६४/पृ.२१० । ४२. " मृषा कथं परिग्रहः इति चेद् उपधीयते अनेनेत्युपधिरति शब्दव्युत्पत्तौ उपधीयते उपादीयते कर्म अनेन व्यलीकेनेत्युपधिरित्युच्यते ।" विजयोदयाटीका / भ.आ./गा. 'आलोयणाए' १६८ । ४३. देखिये, द्वितीय अध्याय / तृतीय प्रकरण / शीर्षक ३.३.१ 'जिनकल्पी भी सचेल और अनग्न । ' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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