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________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६३ २.५. श्वेताम्बरमान्य सचेलमुक्ति पर तीव्र प्रहार – भगवती - आराधना की 'आचेल - क्कुद्देसिय' गाथा (४२३) की टीका में अचेलत्व को ही एकमात्र जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग सिद्ध करने के लिए अपराजितसूरि ने श्वेताम्बरमान्य सचेलत्व पर जबरदस्त प्रहार किया है । उसमें ऐसे अठारह दोष बतलाये हैं, जो मोक्षविरोधी हैं । ३५ श्वेताम्बरग्रन्थों में सचेलत्व को मोक्षमार्ग सिद्ध करने के लिए जो जो तर्क दिये गये हैं, ३६ उनमें से एक-एक को लेकर अपराजितसूरि ने मोक्षविरोधी सिद्ध किया है। विशेषावश्यकभाष्य में सचेललिंग को मोक्ष का मार्ग कहा गया है, अपराजितसूरि ने उसे मोक्ष का अनुपाय सिद्ध किया है । विशेषावश्यकभाष्य में वस्त्र - पात्रादिपरिग्रह को संयमोपकारी बतलाया गया है, अपराजितसूरि ने उसे संयम की शुद्धि में बाधक सिद्ध किया है । विशेषावश्यकभाष्य में उसके मूर्च्छाहेतुत्व का निषेध किया गया है, अपराजितसूरि ने उसे मूर्च्छा का हेतु प्रतिपादित किया है। विशेषावश्यकभाष्य में वस्त्र - पात्रादि के कषायहेतुत्व को स्वीकार करते हुए भी उन्हें अग्रन्थ कहा है, अपराजितसूरि कहते हैं कि शरीर को वस्त्र से परिवेष्टित रखनेवाला यदि अपने को निर्ग्रन्थ कहे, तो अन्यमतावलम्बी भी निर्ग्रन्थ सिद्ध होंगे। विशेषावश्यकभाष्यकार कहते हैं कि नग्न रहने पर स्त्रियों के दर्शन से यदि लिंगोत्थान हो जाता है, तो वह लोगों की दृष्टि में आ जाने से लज्जा का कारण बन जाता है। अपराजितसूरि का कथन है कि वस्त्रधारण करने से मुनि को अपने कामविकार को छिपाने का अवसर मिल जाता है, जिससे वह निर्भय होकर मानसिक कामसेवन करता है। इसके विपरीत नग्न मुनि को इन्द्रियनिग्रह में उसी प्रकार अत्यन्त सावधान रहना पड़ता है, जैसे सर्पों से भरे वन में यात्रा करते हुए विद्यामन्त्रादि से रहित मनुष्य को । विशेषावश्यकभाष्य में कहा गया है कि तीर्थंकरों का अचेललिंग शिष्यों के लिए अनुकरणीय नहीं है, क्योंकि वे उसके योग्य नहीं होते । अपराजितसूरि कहते हैं कि तीर्थंकर मोक्ष के अभिलाषी थे और मोक्ष के उपाय को जानते थे, इसलिए उन्होंने जिस लिंग को धारण किया था, वही समस्त मोक्षार्थियों के लिए धारण करने योग्य है । ३७ जैसे मेरु आदि पर्वतों पर विराजमान जिन प्रतिमाएँ अचेल होती हैं और तीर्थंकरों के मार्ग के अनुयायी गणधर अचेल होते हैं, वैसे ही उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं । ३८ विशेषावश्यकभाष्य, प्रवचनपरीक्षा आदि में बतलाया गया है कि जिनकल्पी साधु अधिक से अधिक बारह उपकरण (उपधि) और स्थविरकल्पी कम से कम चौदह ३५. देखिये, प्रकरण १, शीर्षक १.१.१ से १.१.१८ । ३६. देखिये, तृतीय अध्याय के द्वितीय एवं तृतीय प्रकरण । ३७. देखिये, इसी अध्याय का प्रकरण १ / शीर्षक १ । ३८. देखिये, इसी अध्याय का प्रकरण १/ शीर्षक १.१.१६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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