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________________ १५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ 1 है, इससे अपराजितसूरि को अपनी बात सिद्ध करने में बाधा आती है । अतः वे पहले इसी का निराकरण करते हैं। वे कहते हैं कि श्वेताम्बर आगमों में भिक्षु - भिक्षुणियों को जो वस्त्रधारण की अनुमति दी गई है, वह कारणापेक्ष है, निर्दोषतापेक्ष नहीं । अर्थात् स्त्रियों का शरीर तो प्रकृत्या ही वस्त्रत्याग के योग्य नहीं होता। कई पुरुषों का पुरुषचिह्न अशोभनीय होता है, इसलिए वे वस्त्रत्यागने के अयोग्य होते हैं। कुछ शीतादिपरीषह सहने में असमर्थ होते हैं, इसलिए वस्त्रपरित्याग नहीं कर सकते। कुछ पुरुषों को नग्न होने में लज्जा आती है, इस कारण उनके लिए वस्त्रत्याग असंभव होता है । इन कारणों से उन्हें वस्त्रधारण करने की अनुमति दी गई है। किन्तु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि उनके वस्त्रधारण में वे दोष नहीं होते, जो अपराजितसूरि ने 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा की टीका में बतलाये हैं। जो भी मनुष्य वस्त्रधारण करेगा, उसमें नियम से वे दोष उत्पन्न होंगे और वह मोक्षप्राप्ति में असमर्थ होगा । इसलिए जो वस्त्रधारण करता है, उसे उनका त्याग करना आवश्यक है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए अपराजितसूरि सचेलता के दोषों और अचेलता गुणों का वर्णन करने बाद श्वेताम्बरपक्ष की और से प्रश्न उठाते हैं " अथैवं मन्यसे पूर्वागमेषुवस्त्रपात्रादिग्रहणमुपदिष्टम् । तथा ह्याचारप्रणिधौ भणितं - -पडिलेखे पात्रकम्बलं तु ध्रुवमिति । असत्सु पात्रादिषु कथं प्रतिलेखना ध्रुवं क्रियते ?' आचारस्यापि द्वितीयाध्यायो लोकविचयो नाम, तस्य पञ्चमे उद्देशे एवमुक्तं- 'पडिलेहणं, पादपुंछणं, उग्गहं, कडासणं अण्णदरं उपधिं पावेज्ज इति । तथा वत्थेसणा वुत्तं 'तत्थ एसे हिरिमणे सेगं वत्थं वा धारेज्ज पडिलेहणगं विदियं, तत्थ एसे जुग्नि देसे दुवे वत्थाणि धारिज्ज पडिलेहणगं तदियं । तत्थ एसे परिस्सहं अणधिहासएस (अणहिवासए) तओ (तीणि) वत्थाणि धारेज्ज पडिलीहणं चउत्थं ।' तथा पादेसणाए कथितं 'हिरिमणे वा जुग्गिदे चावि अण्णगे वा तस्स णं कप्पदि वत्थादिकं पादचारित्तए इति ।' पुनश्चोक्तं तत्रैव - 'अलाबुपत्तं वा, दारुगपत्तं वा, मट्टिगपत्तं वा अप्पपाणं, अप्पबीजं अप्पसरिदं तथा अप्पकारं पात्रलाभे सति पडिग्गहिस्सामीति ।' वस्त्रपात्रे यदि न ग्राह्ये कथमेतानि सूत्राणि नीयन्ते? भावनायां चोक्तं- 'बरिसं चीवरधारि तेन परमचेलके तु जिणे' इति । तथा सूत्रकृतस्य पुण्डरीके अध्याये कथितं 'ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिति ।' निसेवेप्युक्तं- 'कसिणाइं वत्थकंबलाई जो भिक्खु पडिग्गहिदि आपज्जदि मासिगं लहुगं' इति एवं सूत्रनिर्दिष्टे चेले अचेलता कथमिति ?" (वि.टी./ भ.आ./गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२३-३२४) । अनुवाद - " यदि आप ऐसा मानते हैं कि सचेलता में अनेक दोष हैं ओर अचेलता में अपरिमित गुण हैं, इसलिए अचेलता को स्थितिकल्प कहा गया है, तो यह भी देखिए कि पूर्वागमों में वस्त्रपात्रादिग्रहण का उपेदश दिया गया है। जैसे आचारप्रणिधि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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