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________________ अ०१४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५७ (दशवैकालिकसूत्र के आठवें अध्ययन)३३ में कहा गया है कि "पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना अवश्य करनी चाहिए।" यदि पात्रादि नहीं होते, तो उनकी प्रतिलेखना आवश्यक कैसे की जाती? आचारांग का भी लोकविचय नाम का दूसरा अध्याय है। उसके पाँचवें उद्देश में कहा गया है कि 'भिक्षु प्रतिलेखना, पादप्रौंच्छन, उग्गह (एक उपकरण) और कटासन (चटाई), इनमें से कोई एक उपधि रखे। ___ "तथा वस्त्रैषणा में कहा गया है-"जो साधु लज्जाशील हो, वह एक वस्त्र तो धारण करे, दूसरा प्रतिलेखना के लिए रखे। जिसका लिंग बेडौल होने से जुगुप्साकर हो, वह दो वस्त्र धारण करे और तीसरा प्रतिलेखना के लिए रखे। और जिसे शीतादि परीषह सहन न हों, वह तीन वस्त्र धारण करे और चौथा प्रतिलेखना के लिए रखे। इसी प्रकार पात्रैषणा में कहा गया है-"जो लज्जाशील एवं पादचारी है, उसके लिए वस्त्र आदि ग्रहण करना योग्य है।" पुनः उसी में यह कहा गया है कि यदि मुझे तूंबी, लकड़ी या मिट्टी का अल्पप्रमाण, अल्पबीज, अल्पप्रसार और अल्पाकार पात्र मिलेगा, तो उसे ग्रहण करूँगा। "यदि वस्त्रपात्र ग्राह्य न होते, तो ये सूत्र क्यों रचे जाते? तथा भावना (आचारांग के २४वें अध्ययन) में कहा गया है कि भगवान् महावीर ने एक वर्ष तक देवदूष्य वस्त्र धारण किया, उसके बाद वे अचेलक हो गये। सूत्रकृतांग के पुण्डरीक-अध्ययन में कहा है कि वस्त्रपात्रादि की प्राप्ति के लिए धर्मकथा नहीं कहनी चाहिए और निशीथसूत्र के दूसरे उद्देश में भी कहा है कि जो भिक्षु वस्त्र-कम्बल एक साथ ग्रहण करता है उसे लघुमासिक प्रायश्चित्त करना पड़ता है।" "इस प्रकार जब सूत्र में वस्त्रग्रहण का निर्देश है, तब अचेलता युक्तिसंगत कैसे हो सकती है?" इसका उत्तर अपराजितसूरि निम्नलिखित शब्दों में देते हैं-"अत्रोच्यतेआर्यिकाणामागमे अनुज्ञातं वस्त्रं कारणापेक्षया। भिक्षूणां ह्रीमानयोग्यशरीरावयवो दुश्चर्माभिलम्बमानबीजो वा परीषहसहने वा अक्षमः स गृह्णाति।" (वि.टी./ भ.आ./ गा.४२३/ पृ.३२४)। अनुवाद-"इसका उत्तर यह है कि आगम में स्त्रियों को कारण की अपेक्षा (वस्त्रत्याग की शारीरिक अयोग्यता के कारण) वस्त्रग्रहण की अनुमति दी गयी है। भिक्षुओं में जो लज्जालु (ह्रीमान्) हो अथवा जिसका पुरुषावयव अप्रशस्त हो (अयोग्यशरीरावयवः) अर्थात् लिंग के मुख पर चर्म न हो या अण्डकोश लम्बे हों अथवा जो परीषह सहने में असमर्थ हो, वह वस्त्रग्रहण करता है।" ३३. पं. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास/ द्वितीय संस्करण/पृ.६१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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