SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ इसकी पुष्टि के लिए अपराजितसूरि आचारांग और कल्पसूत्र से उद्धरण भी देते हैं और अन्त में निष्कर्ष के रूप में कहते हैं 'तस्मात्कारणापेक्षं वस्त्रपात्रग्रहणम् । यदुपकरणं गृह्यते कारणमपेक्ष्य तस्य ग्रहणविधिः गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यम् । तस्माद् वस्त्रं पात्रं चार्थाधिकारमपेक्ष्य सूत्रेषु बहुषु यदुक्तं तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् । " (वि.टी./ भ.आ./गा. ४२३)। 44 अनुवाद - " इसलिए वस्त्रपात्र का ग्रहण कारण की अपेक्षा कहा गया है। और जो उपकरण कारण की अपेक्षा ग्रहण किये जाते हैं, उनका जिस तरह ग्रहण का विधान है, उसी तरह उनका परिहरण (त्याग) भी अवश्य कहना चाहिए अर्थात् उसी प्रकार उनके परित्याग का भी विधान है। इसलिए अनेक ( श्वेताम्बरीय) सूत्रों में जो अर्थाधिकार की अपेक्षा वस्त्रपात्र का कथन किया गया है, वह कारणविशेष की अपेक्षा किया गया है, ऐसा मानना चाहिए ।" इन वचनों से सिद्ध है कि अपराजितसूरि ने आचारांग और कल्पसूत्र के उद्धरणों से यह अभिप्राय ग्रहण किया है कि आर्यिकाओं तथा कतिपय भिक्षुओं को वस्त्र ग्रहण की अनुमति इसलिए दी गई है कि उनके शरीर और मन वस्त्रत्याग के योग्य नहीं है । किन्तु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उक्त शारीरिक और मानसिक अयोग्यताओं के कारण वे वस्त्रग्रहण के उन अठारह दोषों से बच जाते हैं, जिनका प्ररूपण अपराजितसूरि ने 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा की टीका में किया है। अपराजितसूरि का मत है कि वस्त्रग्रहण करनेवाला कोई भी स्त्री या पुरुष उन दोषों से नहीं बच सकता। वे मोक्ष में बाधक हैं, अतः गृहीत वस्त्रों का त्याग करने पर ही मोक्षयोग्य मनःशुद्धि संभव होती है। इसीलिए अपराजितसूरि ने कहा है कि कारण की अपेक्षा जो वस्त्रपात्रादि उपकरण ग्रहण किये जाते हैं, उनका परित्याग भी आवश्यक होता है - " गृहीतस्य च परिहरणमवश्यं वक्तव्यम्।" (गा.४२३ / पृ.३२५) । और उन्होंने भगवती - आराधना की विजयोदया टीका में यह बात अनेक बार अलग-अलग शब्दों में दुहराई है कि वस्त्रादिपरिग्रहधारी की मुक्ति संभव नहीं है । यथा १. " मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्।" (गा.८४/पृ.१२०)। २. " नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रात्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः।''(गा.१११८) । ३. " सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गों, मया तु पातकेन वस्त्रपात्रदिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इत्यन्तः सन्तापो निन्दा ।" (गा. ८६ / पृ. ११२) । ये वचन प्रमाणित करते हैं कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर - आगमों के अनुसार भिक्षु भिक्षुणियों को वस्त्रग्रहण की अनुमति कारणापेक्ष मानते हुए भी निर्दोषतापेक्ष नहीं मानी । मुक्ति की दृष्टि से वस्त्रग्रहण को सदोष अर्थात् मुक्तिविरोधी ही माना है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy