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________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५९ दिगम्बरपरम्परा में भी आर्यिका, क्षुल्लक और एलक को वस्त्रग्रहण की अनुज्ञा कारणापेक्ष ही दी गई है। वस्त्रग्रहण परम्परया मोक्ष का साधक है, साक्षात् नहीं। श्वेताम्बरसचेल-साधुओं को अपराजितसूरि दिगम्बर-परम्परा के इन उत्कृष्ट श्रावकों के ही समकक्ष मानते हैं। २.३. श्वेताम्बरागम-वचनों का स्वीकरण और निरसन-अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से जो उद्धरण दिये हैं, उनमें से कुछ उनकी दिगम्बरीय मान्यताओं के अनुकूल हैं और कुछ प्रतिकूल। उन्होंने अनुकूल मान्यताओंवाले उद्धरणों को स्वीकृति देकर और प्रतिकूल मान्यताओंवाले उद्धरणों का निरसन कर अपनी एकान्त-अचेलमुक्तिवादी मान्यता की पुष्टि की है। ऊपर भिक्षु-भिक्षुणियों को वस्त्रधारण की अनुमति. देनेवाले श्वेताम्बर-आगमों के जो वचन उद्धृत किये गये हैं, उन्हें अपराजितसूरि ने स्वीकृति प्रदान की है, क्योंकि उनमें वस्त्रग्रहण कारणापेक्ष बतलाया गया है, निर्दोषतापेक्ष नहीं, जिससे वस्त्रग्रहण की मोक्षसाधकता का निषेध हो जाता है। इसके विपरीत आचेलक्कुद्देसिय गाथा (४२३) की टीका में दिये गये आचारांग के एक उद्धरण के आधार पर श्वेताम्बरों की ओर से शंका उठायी है कि सूत्र (आगम) में पात्र की प्रतिष्ठापना बतलायी गयी है, अतः संयम के लिए पात्र का ग्रहण किया जाना सिद्ध होता है। अपराजितसूरि ने इसका निरसन किया है। वे कहते हैं-"नहीं, अचेलता का अर्थ है परिग्रह का त्याग और पात्र परिग्रह है, अतः उसका भी त्याग सिद्ध ही है"__ "पात्रप्रतिष्ठापना सूत्रेणोक्तेति संयमार्थं पात्रग्रहणं सिध्यतीति मन्यसे, नैव। अचेलता नाम परिग्रहत्यागः, पात्रं च परिग्रह इति तस्यापि त्यागः सिद्ध एव।" (वि. टी./भ.आ./गा.४२३/पृ.३२५)। इसी प्रकार अपराजितसूरि ने भावना (आचारांगसूत्र के २४ वें अध्ययन) का एक उद्धरण दिया है, जिसमें कहा गया है कि भगवान् महावीर ने एक वर्ष तक देवदूष्य वस्त्र धारण किया, उसके बाद अचेलक हो गये। उद्धरण देकर इस मत का भी निरसन किया है। वे कहते हैं __ "यच्च भावनायामुक्तं वरिसं चीवरधारी तेण परमचेलगो जिणोत्ति तदयुक्तं विप्रतिपत्तिबहुलत्वात्।" (वि.टी./भ.आ./गा. ४२३/पृ.३२५)। __ अनुवाद-"भावना में जो कहा गया है कि भगवान् महावीर एक वर्ष तक वस्त्रधारी रहे, उसके बाद अचेलक हो गये, वह युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि इस विषय में अनेक मतभेद हैं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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