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________________ १६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ इसके बाद वे उन मतभेदों पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं-"कुछ लोगों का कहना है कि वह वस्त्र उसी दिन उस व्यक्ति ने ले लिया, जिसने उसे वीर जिन के शरीर पर डाला था। कुछ लोग कहते हैं कि वह काटों और शाखाओं में उलझतेउलझते छह माह में फट गया। कुछ लोग बतलाते हैं कि एक वर्ष से अधिक बीत जाने पर उसे खण्डलक नामक ब्राह्मण ने ले लिया, जब कि दूसरे लोगों का कथन है कि वह हवा से उड़ गया और भगवान् ने उस पर ध्यान नहीं दिया। यह भी कहा जाता है कि हवा से उड़ जाने पर उस व्यक्ति ने पुनः भगवान् के कन्धे पर रख दिया, जिसने पहले रखा था। इस तरह बहुत मतभेद होने के कारण इस बात में कोई तथ्य दिखाई नहीं देता (कि भगवान् एक वर्ष तक चीवरधारी रहे)। यदि भगवान् ने यह उपदेश देने के लिए वस्त्र ग्रहण किया था कि सचेललिंग मोक्ष का मार्ग है, तो उन्हें उसका विनाश स्वीकार क्यों हुआ? उसे तो सदा धारण किये रहना चाहिए था। और यदि उन्हें यह ज्ञात था कि वह नष्ट हो जायेगा, तो उसे धारण करना निरर्थक था। और यदि यह ज्ञात नहीं था. तो वे अज्ञानी सिद्ध होते हैं। तथा यदि उन्हें सचेलमार्ग का उपदेश देना अभीष्ट था, तो 'प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों का धर्म अचेल था' (आचेलक्को धम्मो पुरिमचरिमाणं-बृहत्कल्पभाष्य / गा.६३६९) यह वचन मिथ्या ठहरता है। तथा नवस्थान में जो यह कहा है कि 'जैसे मैं अचेल हुआ, वैसे ही अन्तिम तीर्थंकर भी अचेल होंगे' इस कथन से भी विरोध आता है। इसके अतिरिक्त यदि अन्य तीर्थंकरों ने भी वस्त्र ग्रहण किया था, तो वीर भगवान् के समान उनके भी वस्त्र त्यागने का काल क्यों नहीं बतलाया गया? इसलिए यही कहना युक्त है कि वीर भगवान् जब सम्पूर्ण वस्त्रादिपरिग्रह का त्याग कर ध्यान में लीन हुए, तब किसी ने उनके कन्धे पर वस्त्र डाल दिया। यह तो एक तरह का उपसर्ग था (वस्त्रधारण करना नहीं था)-"एवं तु युक्तं वक्तुं सर्वत्यागं कृत्वा स्थिते जिने केनचित् वस्त्रं निक्षिप्तम्। उपसर्गः स इति।" (वि.टी/गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२५-३२६)। दूसरी ओर श्वेताम्बर-आगमों के जो वचन अचेलत्व के प्रतिपादक हैं, उन्हें उद्धृत कर अपराजितसूरि ने अपनी एकान्त-अचेलमुक्ति की दिगम्बरीय मान्यता को बल दिया है। उत्तराध्ययन के ऐसे वचनों को उद्धृत करते हुए वे कहते हैं ___ "इदं चाचेलता प्रसाधनपरं शीतदंशमशकतृणस्पर्शपरीषहसहनवचनं परीषहसूत्रेषु न हि सचेलं शीतादयो बाधन्ते। इमानि च सूत्राणि अचेलतां दर्शयन्ति परिणत्तेसु वत्थेसु ण पुणो चेलमादिए। अचेलपवरे भिक्खू जिणरूवधरे सदा॥ सचेलगो सुखी भवदि असुखी चावि अचेलगो। अहं तो सेचलो होक्खामि इदि भिक्खू ण चिंतए॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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