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________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १६१ अलग सलूहस्स (स्स लहुअस्स) सीदं भवदि एगदा । णातपं से विचिंतेज्जो अधिसिज्ज अलाइसो ॥ ण मे णिवारणं अस्थि अहं तावग्गि सेवामि छाइयं ता ण विज्जदि । इति भिक्खूण चिंतए ॥ Jain Education International संजदस्स अचेल गाण लूहस्स तणेसु असमाणस्स णं ते होदि तवस्सिणो । विराधिदो ॥ संवुडंगतिणंसित । एगेण ताव कप्पेण दंसावाए जो संपसिद्धं किमंगं पुण दीहकप्पेहिं ॥ ३४ 44 अनुवाद - " परीषहसूत्रों (उत्तराध्ययन) में जो शीत, डाँस-मच्छर, तृणस्पर्श आदि परीषहों के सहने का कथन है, वह सिद्ध करता है कि मुनि को अचेल रहने का ही उपदेश दिया गया है, क्योंकि सचेल को शीतादि की बाधाएँ नहीं होतीं । ये सूत्र भी अचेलता का ही समर्थन करते हैं " वस्त्रों का त्याग कर देने पर भिक्षु पुनः वस्त्र ग्रहण नहीं करता । भिक्षु अचेल होकर सदा जिनरूप धारण करता है। भिक्षु ऐसा विचार नहीं करता कि 'सवस्त्र सुखी रहता है और निर्वस्त्र दुःखी, इसलिए मैं वस्त्र धारण करूँगा ।' निर्वस्त्र साधु को कभी ठंड की पीड़ा होती है, तो वह धूप की इच्छा नहीं करता, बल्कि आलस त्याग कर सहन करता है । 'मेरे पास शीतनिवारण का कोई साधन नहीं है, न कोई छप्पर है, अतः मैं आग का सेवन करूँ,' भिक्षु ऐसा विचार नहीं करता। जो तपस्वी अचेल होने से भारमुक्त है, वह संयम की विराधना नहीं करता।" इसके बाद अपराजितसूरि अचेलता के समर्थन में उत्तराध्ययन की निम्नलिखित गाथाएँ उद्धृत करते हैं “एतान्युत्तराध्ययने– आचेलक्को य जो धम्मो जो वायं सणरुत्तरो । देसिदो वड्ढमाणेण पासेण य महप्पणा ॥ एगधम्मे पवत्ताणं उभएसं दुविधा पविद्वाणमहं इति वचनाच्चरमतीर्थस्यापि अचेलता सिद्ध्यति ।" (वि.टी./ भ.आ./गा. ४२३ / पृ.३२७)। ३४. विजयोदयाटीका / भगवती - आराधना / गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' ४२३ / पृ.३२६-३२७ । लिंगकप्पणा । संसयमागदा ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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