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________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५५ प्रतिपादित किया है, मुनियों के लिए नहीं । " मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् "= मोक्ष का इच्छुक यति वस्त्र ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मोक्ष का उपाय नहीं हैं। (वि.टी./ भ.आ./गा. ८४), उनका यह एक ही वाक्य यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि उन्होंने मुनियों के लिए सचेललिंग का समर्थन नहीं किया। यह श्वेताम्बर - आगमों को प्रमाण न मानने का प्रबल प्रमाण है। अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर - आगमों से उद्धरण दिये हैं, पर यह देखना चाहिए कि उन्होंने इससे क्या सिद्ध करने का प्रयत्न किया है? उन्होंने श्वेताम्बर - आगमों से उद्धरण देकर यह सिद्ध किया है कि उनमें भी मोक्ष के लिए अचेलत्व को आवश्यक बतलाया गया है और भिक्षुओं को वस्त्रग्रहण की अनुमति वस्त्रत्याग की अयोग्यता या असमर्थता होने पर ही दी गयी है, किन्तु वस्त्रग्रहण को निर्दोष नहीं माना है, मोक्ष में बाधक ही बतलाया है । इसीलिए उन्होंने कहा है कि ग्रहण किये गये वस्त्रादि का त्याग भी आवश्यक है। इस आपवादिक वस्त्रग्रहण के विषय में अपराजितसूरि की दृष्टि उनके इन कथनों से स्पष्ट हो जाती है कि "मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् " (गा. ८४ ) तथा " नैव संयतो भवति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः "= केवल वस्त्र का त्याग करने और शेष परिग्रह रखने से जीव संयत ( मुनि) नहीं होता । (वि.टी./ भ.आ./गा.१११८) । इस प्रकार अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर - आगमों से जो उद्धरण दिये हैं, वे सचेलत्व को मुक्तिविरोधी एवं एकमात्र अचेलत्व को मुक्तिसाधक सिद्ध करने के लिए दिये हैं। इससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि वे श्वेताम्बर - आगमों (उनमें प्रतिपादित सचेलमुक्ति की मान्यता) को प्रमाण मानते हैं? इससे तो यह सिद्ध होता है कि उन्हें उनका प्रामाण्य अस्वीकार्य है। 4 अपराजितसूरि श्वेताम्बर- आगमों को प्रमाण मानते हैं, यह तो तब कहा जा सकता था, जब वे अचेलत्व और सचेलत्व दोनों को या केवल सचेलत्व को मोक्ष का उपाय बतलाते, किन्तु उन्होंने तो 'मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात् ' यह कहकर सचेलत्व के मोक्षमार्ग होने का दो टूक शब्दों में निषेध कर दिया है। अतः वे श्वेताम्बरआगमों को प्रमाण मानते हैं, यह कथन एकदम असत्य सिद्ध होता है। २.२. श्वेताम्बरागमों में वस्त्रग्रहण की अनुमति कारणापेक्ष, निर्दोषतापेक्ष नहीं – अपराजितसूरि 'आचेलक्कुद्देसिय' (४२३) गाथा की टीका में सचेलता में अनेक दोष और अचेलता में अपरिमित गुण बतलाने के बाद यह सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत होते हैं कि श्वेताम्बर - आगमों में भी मोक्ष के लिए अचेलत्व आवश्यक माना गया है । किन्तु उक्त आगमों में भिक्षु भिक्षुणियों को वस्त्रधारण करने की अनुमति दी गयी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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