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________________ १५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०२ चुके होते हैं।३१ अतः उनके साथ 'अतिवैभवशाली', 'मिथ्यादृष्टि-स्वजनोंवाले' आदि विशेषण प्रयुक्त नहीं हो सकते। यह भी गृहस्थों के ही अपवादलिंगी कहे जाने का एक प्रमाण है। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि भगवती-आराधना में आर्यिकाओं के लिए अल्पपरिग्रहरूप उत्सर्गलिंग३२ तथा श्राविकाओं के लिए बहुपरिग्रहरूप अपवादलिंग बतलाया गया है, जिसे टीकाकार ने "औत्सर्गिकं तपस्विनीनां इदरं वा श्राविकाणाम्" (गा.८० / पृ.११५) कहकर स्पष्ट किया है। ___ इन अनेकप्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध है कि भगवती-आराधना और उसकी टीका में श्रावकों के सचेललिंग को ही अपवादलिंग कहा गया है, श्वेताम्बर-यापनीय मुनियों के सचेललिंग को नहीं। अतः अपराजितसूरि को यापनीय-आचार्य सिद्ध करनेके लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु कि उन्होंने मुनियों के लिए सचेल अपवादलिंग का समर्थन किया है, सर्वथा असत्य है। हेतु के असत्य होने सिद्ध है कि. अपराजितसूरि यापनीय आचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। २ श्वेताम्बर-आगमों का प्रामाण्य अस्वीकार्य यापनीयपक्ष प्रेमी जी का कथन है कि अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर-आगमों से उद्धरण देकर अचेलता का समर्थन किया है और विशेष परिस्थितियों में (पुरुषचिह्न के बीभत्स होने पर या शीतादिपरीषह-सहन की शक्ति न होने पर) मुनि के लिए वस्त्र-ग्रहण का औचित्य प्रतिपादित किया है। इससे सूचित होता है कि वे श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाण मानते थे। अतः सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय थे। (जै.सा.इ./द्वि.सं./पृ.६१६६)। दिगम्बरपक्ष २.१. सचेलमुक्ति का निषेध-अपराजितसूरि के पूर्वोद्धृत वचनों से स्पष्ट है कि उन्होंने कथित परिस्थितियों में सचेल-अपवादलिंग का औचित्य श्रावकों के लिए ३१. जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं । इच्चेवमादिबहुगा अच्चेलक्के गुणा होंति ॥ ८४॥ भगवती-आराधना। ३२.क- इत्थीवि य जं लिगं दिटुं उस्सग्गियं व इदरं वा। तं तत्थ होदि ह लिंगं परित्तमवधिं करेंतीए॥ ८०॥ भगवती-आराधना। ख- "उत्सर्गलिङ्गं कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तदुत्सर्गलिङ्गं स्त्रीणां भवत्यल्पं परिग्रहं कुर्वत्याः ।" वि.टी./गा. ८०/ पृ.११५ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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