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________________ अ०१४ / प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५३ इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन आगे कहते हैं-"चारित्र की रक्षा के लिए अपवादनिरपेक्ष उत्सर्ग तथा उत्सर्गनिरपेक्ष अपवाद त्याज्य है।---क्योंकि यदि मुनि दुर्धर अनुष्ठानरूप उत्सर्गमार्ग में ही प्रवर्तन करे और 'प्रासुक आहार आदि ग्रहण करने से अल्प कर्मबन्ध होगा', यह सोचकर आहारादि ग्रहण न करे तो आर्तध्यानपूर्वक मरण होगा, और पूर्वकृत पुण्य के फल से देवलोक में जन्म लेगा। वहाँ संयम की साधना असंभव होने से महान् कर्मबन्ध होगा। इस कारण अपवादनिरपेक्ष उत्सर्ग त्याज्य है और शुद्धात्मभावना- साधक होने से अल्पबन्धात्मक, किन्तु बहुलाभात्मक अपवादसापेक्ष उत्सर्ग ग्राह्य है। इसी प्रकार यदि मुनि अपवादमार्ग में प्रवर्तन करते समय व्याधिव्यथा आदि के प्रतीकार के बहाने इन्द्रियसुख की लालसा से स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है, तो उससे संयम की विराधना होगी, जिसके फलस्वरूप महान् कर्मबन्ध होगा। इसलिए उत्सर्गनिरपेक्ष अपवाद भी त्याज्य है और अल्पबन्धात्मक किन्तु बहुगुणात्मक उत्सर्गसापेक्ष अपवाद ग्राह्य है। (ता.वृ./प्र.सा.३/३१)। __ आचार्य अमृतचन्द्र ने भी तत्त्वदीपिका (प्र.सा./३/३१) में मुनि के लिए विहित उत्सर्ग-अपवादमार्ग का ऐसा ही प्ररूपण किया है। इन दोनों टीकाओं में मुनि के लिए अपवादमार्ग का जो स्वरूप बतलाया गया है, उसमें क्षुधा और व्याधि का प्रतीकार करने के लिए आहार और औषधि के ग्रहण का विधान तो है, किन्तु शीतोष्णदंशमशक अथवा लज्जा परीषहों का प्रतीकार करने के लिए वस्त्रग्रहण का विधान नहीं है। अतः मुनि के अपवादलिंग को सचेल मानना युक्तिसंगत नहीं है। श्वेताम्बर-यापनीय मतों में मुनि के जिस स्थविरकल्पी सचेललिंग को अपवादलिंग माना गया है, वह वस्तुतः अपवादलिंग नहीं है, अपितु जिनकल्प का वैकल्पिक लिंग है, क्योंकि उससे भी उसी प्रकार मोक्ष संभव माना गया है, जिस प्रकार जिनकल्प से। अपवादलिंग उत्सर्गलिंग के समकक्ष नहीं होता, अपितु उसका साधक होता है। अतः सचेल अपवादलिंग गृहस्थ का ही लिंग हो सकता है, मुनि का नहीं। शिवार्य और अपराजितसूरि दोनों ने कहा है कि "जो अपवादलिंगधारी महर्द्धिक (अतिवैभवशाली) हैं अथवा लजालु हैं या जिनके स्वजन (परिवार के लोग) मिथ्यादृष्टि (अन्यधर्मावलम्बी) हैं, उन्हें सार्वजनिक स्थान में (जहाँ लोग आते-जाते हैं) अपवादलिंग में ही रहना चाहिए, औत्सर्गिक लिंग ग्रहण नहीं करना चाहिए।"३० ___ ये 'महर्द्धिक' आदि धर्म गृहस्थों में ही होते हैं, मुनियों में नहीं। मुनि तो समस्त परिग्रह का त्याग एवं स्वजनों से ममत्व का विसर्जन कर जिनप्रतिरूप धारण कर ३०. आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महडिओ हिरिमं। मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादियं लिंगं॥ ७८ ॥ भगवती-आराधना। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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