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________________ १५२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० २ में हुआ है तथा मुनिग्राह्य उत्सर्ग-अपवादलिंगों का विवेचन प्रवचनसार की तत्त्वदीपिका और तात्पर्यवृत्ति टीकाओं में किया गया है। आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति में इनका खुलासा इस प्रकार किया है 44 'अथ निश्चयव्यवहारसंज्ञयोरुत्सर्गापवादयोः कथञ्चित् परस्परसापेक्षभावं स्थापयन् चारित्रस्य रक्षां दर्शयति । उत्सर्गापवादलक्षणं कथ्यते तावत् । स शुद्धात्मनः सकाशादन्यद् बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरूपं सर्वं त्याज्यमित्युत्सर्गों निश्चयनयः, सर्वपरित्यागः, परमोपेक्षासंयमो, वीतरागचारित्रं, शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थः । तत्रासमर्थः पुरुषः शुद्धात्मभावनासहकारिभूतं किमपि प्रासुकाहारज्ञानोपकरणादिकं गृह्णातीत्यपवादो व्यवहारनय, एकदेशपरित्यागस्तथा चापहृतसंयमः, सरागचारित्रं, शुभोपयोग इति यावदेकार्थः । तत्र शुद्धात्मभावनानिमित्तं सर्वत्यागलक्षणोत्सर्गे दुर्धरानुष्ठाने प्रवर्तमानस्तपोधनः शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य, संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथा छेदो विनाशो न भवति तथा किमपि प्रासुकाहारादिकं गृह्णातीत्यपवादसापेक्ष उत्सर्गों भण्यते । यदा पुनरपवादलक्षणेऽपहृतसंयमे प्रवर्तते तथापि शुद्धात्मतत्त्वसाधकत्वेन मूलभूतसंयमस्य संयमसाधकत्वेन मूलभूतशरीरस्य वा यथोच्छेदो विनाशो न भवति तथोत्सर्गसापेक्षत्वेन प्रवर्तते । तथा प्रवर्तत इति कोऽर्थः ? यथा संयमविराधना न भवति तथेत्युत्सर्गसापेक्षोऽपवाद इत्यभिप्राय: ।" (ता.वृ./प्र.सा./३/३० /पृ. २८७-२८८)। ➖➖➖ अनुवाद- - " अब यह दर्शाते हैं कि निश्चय - व्यवहारसंज्ञक उत्सर्ग और अपवाद में परस्परसापेक्षभाव की स्थापना करते हुए चारित्र की रक्षा की जानी चाहिए। उत्स और अपवाद के लक्षण इस प्रकार हैं- शुद्धात्मा से भिन्न जो बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह है, उस सबका त्याग उत्सर्ग, निश्चयनय ( निश्चय - मुनिधर्म), सर्वपरित्याग, परमोपेक्षासंयम, वीतरागचारित्र अथवा शुद्धोपयोग कहलाता है। ये सब एकार्थक हैं। इसमें असमर्थ पुरुष शुद्धात्मभावना में सहायक (साधक) कुछ प्रासुक आहार तथा ज्ञान के उपकरण (शास्त्र) आदि ग्रहण करता है, उसे अपवाद, व्यवहारनय ( व्यवहारमुनिधर्म), एकदेशपरित्याग, अपहृतसंयत, सरागचारित्र और शुभोपयोग कहते हैं। जब मुनि शुद्धात्मभावना के प्रयोजन से सर्वपरित्यागात्मक दुर्धर अनुष्ठानरूप उत्सर्गमार्ग में प्रवृत्त होता है, तब शुद्धात्मतत्त्व के साधक मूलभूत संयम का अथवा संयम के साधक मूलभूत शरीर का विनाश न हो जाय, इस दृष्टि से कुछ प्रासुक आहारादि ग्रहण करता है, वह अपवादसापेक्ष उत्सर्ग कहलाता है । और जब अपवादरूप अपहृतसंयम में प्रवृत्त होता है, तब भी शुद्धात्मतत्त्व के साधक मूलभूत संयम को अथवा संयम के साधक मूलभूत शरीर को अयुक्त आहार-विहार द्वारा हानि न पहुँचे, इस अपेक्षा से युक्ताहारविहारपूर्वक आचरण करता है, इसे उत्सर्गसापेक्ष अपवाद कहते । अर्थात् जिस तरह से संयम की विराधना न हो, उस तरह से आचरण करना उत्सर्गसापेक्ष अपवाद है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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