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________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १५१ १.९. परस्परसापेक्षता साध्यसाधकभाव के कारण-श्रीमती पटोरिया का यह कथन सत्य है कि 'अपवाद उत्सर्गसापेक्ष होता है। २८ किन्तु उत्सर्ग और अपवाद में परस्परसापेक्षता साध्यसाधकभाव के कारण होती है। भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में श्रावक के सचेल अपवादलिंग को अचेल उत्सर्गलिंग का साधक बतलाया गया है।९ इसलिए उनमें साध्यसाधकभाव की अपेक्षा परस्परसापेक्षता है। प्रवचनसार (३/३०) की तत्त्वदीपिका एवं तात्पर्यवृत्ति टीकाओं में भी मुनि की आहारविहार-स्वाध्याय आदि से रहित शुद्धोपयोगरूप अवस्था को उत्सर्ग तथा स्वाध्यायआहारग्रहणादिरूप शुभोपयोग-अवस्था को शुद्धोपयाग-साधक होने से अपवाद कहा गया है और साध्यसाधकभाव के कारण उन्हें परस्परसापेक्ष बतलाया गया है। किन्तु यापनीयमत में मुनि का सचेललिंग नग्नत्वरूप उत्सर्गलिंग का साधक स्वीकार नहीं किया गया है, अपितु स्वतन्त्ररूप से मोक्ष का हेतु माना गया है। अतः उनमें साध्यसाधकभाव न होने से परस्परसापेक्षता नहीं है। वह सचेललिंग अचेल-उत्सर्गलिंग का समकक्ष होने से वैकल्पिक सचेल-उत्सर्गलिंग ही है, अपवादलिंग नहीं। इस तरह यापनीयमत में कोई अपवादलिंग है ही नहीं। अपवादलिंग न होने से उत्सर्गलिंग भी नहीं है। फलस्वरूप उसमें उत्सर्ग-अपवाद संज्ञाएँ घटित ही नहीं होती। अतः जब यापनीयमत का सचेल मुनिलिंग अपवादलिंग ही नहीं है, तब उत्सर्गलिंग के साथ उसका सापेक्षभाव कैसे हो सकता है? सर्वथा नहीं। भगवती-आराधना और उसकी टीका में निर्दिष्ट श्रावक का सचेललिंग ही अचेल-उत्सर्गलिंग का साधक है, अतः वही अपवादलिंग है। इसलिए उसके साथ ही उत्सर्गलिंग का सापेक्षभाव घटित होता है। इस प्रकार सिद्ध है कि भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में वर्णित सचेललिंग श्रावक का ही अपवादलिंग है। १.१०. मुनि के अपवादलिंग में वस्त्रग्रहण का विधान नहीं-दिगम्बरजैनसिद्धान्त में उत्सर्ग-अपवाद के दो भेद हैं-१. गृहस्थ के द्वारा ग्राह्य और २. मुनि द्वारा ग्राह्य। अचेल मुनिलिंग समर्थ गृहस्थ के द्वारा ग्राह्य उत्सर्गलिंग है और सचेलश्रावकलिंग असमर्थ गृहस्थ के द्वारा ग्राह्य अपवादलिंग, जो उत्सर्गलिंग के ग्रहण का सामर्थ्य आ जाने पर त्याज्य होता है। तथा शुद्धोपयोग समर्थ दिगम्बरमुनि का उत्सर्गलिंग है और शुभोपयोग असमर्थ दिगम्बरमुनि का अपवादलिंग। यह भी शुद्धोपयोगरूप औत्सर्गिक मुनिलिंग का साधक है, जो उसके उपलब्ध हो जाने पर छूट जाता है। गृहस्थ द्वारा ग्राह्य उक्त द्विविध लिंगों का प्रतिपादन भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका २८. यापनीय और उनका साहित्य / पृ.१२८ । २९. विजयोदयाटीका / गा. 'अववादियलिंग' ८६ / पृ.१२२ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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