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________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १४३ क-"मुक्त्यर्थी च यतिर्न चेलं गृह्णाति मुक्तेरनुपायत्वात्" = मुक्ति का इच्छुक मुनि वस्त्रग्रहण नहीं करता, क्योंकि वह मुक्ति का उपाय नहीं है। (वि.टी. /गा. "जिणपडिरूवं' ८४ / पृ.१२२)। ख-"सकलपरिग्रहत्यागो मुक्तेर्मार्गो, मया तु पातकेन वस्त्रपात्रादिकः परिग्रहः परीषहभीरुणा गृहीत इत्यन्तःसन्तापो निन्दा" = सकलपरिग्रह का त्याग मुक्ति का मार्ग है, किन्तु मुझ पापी ने परीषहों के डर से वस्त्रपात्रादि-परिग्रह ग्रहण किया है, इस प्रकार मन में पश्चात्ताप करने को निन्दा कहते हैं। (वि.टी./गा. अववादियलिंग' ८६ / पृ.१२२)। ग-"नैव संयतो भवतीति वस्त्रमात्रत्यागेन शेषपरिग्रहसमन्वितः" = मात्र वस्त्रत्याग करने से मनुष्य संयत (मुनि) नहीं होता, शेष परिग्रह का भी त्याग आवश्यक है। (वि. टी. / गा. 'ण य होदि संजदो' १११८ / पृ. ५७४)। ___घ-"चेलग्रहणं परिग्रहोपलक्षणं, तेन सकलपरिग्रहत्याग आचेलक्यमित्युच्यते"= वस्त्रग्रहण परिग्रह का उपलक्षण है, इसलिए वस्त्र के साथ सकलपरिग्रह का त्याग ही 'आचेलक्य' कहलाता है। (वि. टी. / गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२०)। ___ङ –"न ह्यसंयतसम्यग्दृष्टेः संयतासंयतस्य वा निवृत्तविषयरागता, सकलग्रन्थपरित्यागो वास्ति" = जो असंयतसम्यग्दृष्टि या संयतासंयत होता है, वह न तो विषयराग से निवृत्त होता है, न ही सकलपरिग्रह का त्यागी है। (वि.टी. / गा. 'सिद्धे जयप्प' १) । सचेलमुक्तिनिषेध के इनसे अधिक स्पष्ट प्रमाण और क्या हो सकते हैं? आश्चर्य तो यह है कि विजयोदयाटीका में मुनि के लिए सचेल अपवादलिंग का इतने स्पष्ट शब्दों में निषेध होते हुए भी प्रेमी जी और उनके अनुगामियों ने यह घोषित कैसे कर दिया कि अपराजितसूरि ने उसका समर्थन किया है? और कोई कारण दिखाई नहीं देता, अतः यही सिद्ध होता है कि प्रेमी जी जैसे विद्वान् ने भी टीका का आद्योपान्त अनुशीलन किये बिना ही ऐसा तथ्यविरुद्ध निर्णय दे दिया। १.२. सचेललिंगधारी के मुनि होने का निषेध-भगवती-आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में गृहस्थों या श्रावकों के लिंग को अपवादलिंग कहा गया है, मुनि के सचेललिंग को नहीं, इसकी सप्रमाण सिद्धि भगवती-आराधना के अध्याय में की जा चुकी है। उसके दो-तीन प्रमाणों को यहाँ दुहरा देना उचित होगा क-अपराजितसूरि ने सचेललिंगधारी के मुनि (संयत) होने का निषेध किया है, (वि. टी. / गा.१११८), अतः उनके द्वारा सचेल अपवादलिंग को मुनि का लिंग कहा ही नहीं जा सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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