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________________ अ० १६ / प्र० ३ तत्त्वार्थसूत्र / ३८७ सूत्रों में 'काल' शब्द आया है, वहाँ तो उनकी व्याख्या करते हुए 'काल' शब्द का ही उपयोग किया है, किन्तु जिन सूत्रों में 'काल' शब्द नहीं आया है और वहाँ काल का उल्लेख करना उन्होंने आवश्यक समझा है, तो 'काल' शब्द का प्रयोग न कर अद्धासमय ( ५ / १ / पृ. २४५) शब्द का ही प्रयोग किया है । तत्त्वार्थभाष्य और उसके द्वारा मान्य सूत्रपाठ की ये दो स्थितियाँ हैं, जो हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में सहायता करती हैं कि प्रारंभ में तो 'कालश्च' सूत्र का ही निर्माण हुआ होगा, किन्तु बाद में वह बदलकर 'कालश्चेत्येके' यह रूप ले लेता है ।" (स.सि./ प्रता/ पृ. ३५)। इस प्रकार निश्चित होता है कि 'कालश्चेत्येके' पाठ मौलिक नहीं है, 'कालश्च' पाठ ही मौलिक है। अत: 'कालश्चेत्येके' सूत्र के आधार पर तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ सिद्ध नहीं होता, अपितु 'कालश्च' सूत्र की युक्तिमत्ता सिद्ध हो जाने से दिगम्बरपरम्परा का ही सिद्ध होता है। ३ पुलाकादि मुनि दिगम्बरमत विरुद्ध नहीं श्वेताम्बरपक्ष तत्त्वार्थसूत्र में निर्ग्रन्थों के जो पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक भेद बतलाये गये हैं वे दिगम्बरमत से मेल नहीं खाते। (प्रेमी : जै. सा. इ./ द्वि.सं./पृ. ५४०, जै.ध.या.स./पृ. ३१४)। दिगम्बरपक्ष इसका उत्तर देते हुए माननीय पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"यह ठीक है कि मूलाचार और भगवती - आराधना में पुलाकादि का कथन नहीं है और न कुन्दकुन्द ने ही उनका कथन किया है । किन्तु इस पर से यह नहीं कहा जा सकता कि निर्ग्रन्थों के ये भेद दिगम्बर- परम्परा को मान्य नहीं । हाँ, उनमें से आदि के पुलाक मुनि अपने मूलगुणों में परिपूर्ण नहीं होते। प्रारंभ में ऐसा होना संभव है। इसी प्रकार बकुश मुनि को अपने शरीरादि का मोह भी रह सकता है । उसका निर्ग्रन्थ दिगम्बरमुनियों की चर्या के साथ विरोध नहीं है। हाँ, श्रुतसागर जी ने जो 'संयमश्रुत' आदि सूत्र की व्याख्या (तत्त्वार्थवृत्ति / ९ / ४७ / पृ. ३१६) में यह लिखा है कि असमर्थ मुनि शीतकालादि में वस्त्रादि भी ग्रहण करते हैं और इसे कुशील मुनि की अपेक्षा भगवती - आराधना के अभिप्राय के अनुसार बतलाया है, वह ठीक नहीं है । भगवतीआराधना में इस तरह का कोई विधान नहीं है। हाँ, टीकाकार अपराजित सूरी ने लिखा है कि विशेष अवस्था में अशक्त साधु वस्त्र आदि ग्रहण कर सकते थे। उसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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