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३८६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०३ उनकी जीव-अजीव से भिन्न सत्ता स्वीकार नहीं की है।५४ इस प्रकार कालद्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता उन कुछ आचार्यों के मत से भी सिद्ध नहीं होती, जिन्होंने काल को छठा द्रव्य घोषित किया है। निष्कर्ष यह कि श्वेताम्बर आम्नाय में काल द्रव्य की स्वतंत्र सत्ता मानी ही नहीं गई है। श्वेताम्बर विद्वान् स्वयं स्वीकार करते हैं कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने निश्चयकाल या मुख्यकाल का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है।५५
इससे स्पष्ट है कि श्वेताम्बरमत के अनुसार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के समान काल द्रव्य का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। और जिस द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं है, उसमें 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्' (त.सू. / श्वे./५ /३७) यह लक्षण घटित नहीं हो सकता। उसके वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व, ये कार्य भी उपपन्न नहीं हो सकते और उसमें अनन्तसमयरूप पर्यायें भी उत्पन्न नहीं हो सकतीं। अतः 'कालश्चेत्येके' सूत्र के साथ 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य (त.सू. / श्वे./५/ २२) तथा 'सोऽनन्तसमयः' (त.सू. / श्वे./ ५/३९) आदि समस्त कालविषयक सूत्र असंगत हो जाते हैं। इनकी संगति केवल दिगम्बरमान्य 'कालश्च' (त.सू./दि./५/३९) सूत्र के साथ बैठती है, क्योंकि दिगम्बरपरम्परा में काल को जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश के समान ही स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है। इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र में 'कालश्च' पाठ ही मौलिक है। श्वेताम्बराचार्यों ने उसमें 'इत्येके' जोड़कर अपने मत के अनुकूल बनाने की चेष्टा की है, किन्तु उन्होंने यह विचार नहीं किया कि ऐसा करने से उपर्युक्त सूत्र असंगत हो जायेंगे।
__ सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री भी अपनी गवेषणा से इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। वे लिखते हैं-"श्वेताम्बर-आगमसाहित्य में जहाँ भी छह द्रव्यों का नामनिर्देश किया है, वहाँ कालद्रव्य के लिए अद्धासमय शब्द प्रयुक्त हुआ है, काल शब्द नहीं और अद्धासमय का अर्थ वहाँ पर्याय ही लिया गया है, प्रदेशात्मक द्रव्य नहीं। तत्त्वार्थभाष्यकार ने भी इसी परिपाटी का निर्वाह किया है। उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के जिन
१५४. “स च विशेषो भेदप्रधानो नयः, तद्बलेन कालोऽपीति, अपिशब्दश्च शब्दार्थः, कालश्च
द्रव्यान्तरमागमे निरूपितमिति कथयन्ति-"कति णं भंते! दव्वा पण्णत्ता? गोयमा! छ दव्वा पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमए।" विनिवृत्तौ वा तु शब्दः। कस्य व्यावतर्कः? धर्मास्तिकायादिपञ्चकाव्यतिरिक्त
कालपरिणतिवादिनो द्रव्यनयस्येति।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५/३८/ पृ. ४३०।। १५५. "सूत्रकाराभिप्रायेण निश्चयकालस्यास्वीकारात् तत्स्वरूपाः कालाणवोऽपि न भवेयुः।---
किञ्च यदि कालो मुख्यद्रव्यं स्यात् तर्हि 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' इत्यत्राजीवरूपेण तस्याप्युल्लेखः करणीयो भवेत्।" हीरालाल : संस्कृत प्रस्तावना / पृ. २५ / तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति / भा.१।
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