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________________ अ०१६/प्र०३ तत्त्वार्थसूत्र / ३८५ 'कालश्चेत्येके' सूत्र मौलिक नहीं श्वेताम्बरपक्ष __ श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में जो 'कालश्चेत्येके' (५/३८) सूत्र है, वह दिगम्बरमत के विरुद्ध है, क्योंकि दिगम्बरमत में कालद्रव्य का अस्तित्व निर्विवाद माना गया है, जब कि उपर्युक्त सूत्र में यह बतलाया है कि कुछ आचार्य काल को द्रव्य मानते हैं और कुछ नहीं। काल के द्रव्यत्व के विषय में ये दो मान्यताएँ श्वेताम्बर-मत से सम्बन्ध रखती हैं, अतः सिद्ध होता है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। (पं० सुखलाल जी संघवी/त.सू./वि.स./प्रस्ता./ पृ. १७)। दिगम्बरपक्ष 'कालश्चेत्येके' सूत्र मौलिक नहीं है। यह निम्नलिखित कारणों से सिद्ध होता श्वेताम्बर-आगमों में काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं माना गया है, अपितु जीव की पर्यायों को 'काल' संज्ञा दी गयी है।५३ और यही श्वेताम्बरों की आगमसम्मत मान्यता है, क्योंकि काल को द्रव्य माननेवाले आचार्य कुछ ही हैं, ऐसा सूत्रकार ने स्वयं कहा है-'कालश्चेत्येके।' किन्तु आश्चर्य यह है कि सूत्रकार ने उपर्युक्त आगमप्रमाणित मत का तो ग्रन्थ में कहीं भी उल्लेख नहीं किया है, जब कि कुछेक आचार्यों द्वारा मान्य मत का उल्लेख किया है, जिससे जिज्ञासुओं को तत्त्वार्थसूत्र के अध्ययन से यह ज्ञान नहीं हो पाता कि काल के विषय में श्वेताम्बर-आगमों की मान्यता क्या है? दूसरी बात यह है कि कुछ श्वेताम्बराचार्यों ने काल को जो छठा द्रव्य माना है, वह नाममात्र का छठा द्रव्य है। उसकी जीव, पुद्गल आदि के समान स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। श्री सिद्धसेनगणी ने उसका अस्तित्व भेदनय से सिद्ध किया है अर्थात् जीव और अजीव तथा उनकी पर्यायों में जो नाम-लक्षण आदि की दृष्टि से भेद है, उसकी अपेक्षा जीव-अजीव की पर्यायों को जीव-अजीव से भिन्न मानकर उन पर्यायों को ही छठा काल द्रव्य-मान लिया गया है, किन्तु द्रव्यनय ( अभेदनय) की अपेक्षा, १५३. "किमिदं भंते! कालोत्ति पवुच्चति? गोयमा! जीवा चेव अजीवा चेव।" इदं हि सूत्रमस्ति कायपञ्चकाव्यतिरिक्तकालप्रतिपादनाय तीर्थकृतोपादेशि, जीवाजीवद्रव्यपर्यायः काल इति सूत्रार्थ:--- । स च वर्तनादिरूपो द्रव्यस्यैव पर्यायः।" तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति ५/३८/पृ. ४३२। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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