SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 440
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० ३ है, जिसमें कल्पों की संख्या बारह या सोलह निर्दिष्ट की गई हो। षट्खण्डागम, भगवती - आराधना और मूलाचार में कल्पसंज्ञक स्वर्गों की संख्या सोलह बतलाई गई है और वरांगचरित में बारह । ये सभी ग्रन्थ दिगम्बराचार्यकृत हैं, यह पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है । 'वरांगचरित' का दिगम्बराचार्यकृत होना आगे सिद्ध किया जायेगा । अतः दिगम्बर - परम्परा में कल्पसंज्ञक स्वर्गों की संख्या बारह भी मानी गयी है और सोलह भी । दिगम्बरग्रन्थ तिलोयपण्णत्ती में भी कहा गया है कि कोई आचार्य कल्पों की संख्या १२ बतलाते हैं और कोई सोलह । (ति.प./८/११५) । अतः कल्पवासी देवों के बारह भेद तथा कल्पों की संख्या सोलह मानना दिगम्बरमत के सर्वथा अनुकूल है, विरुद्ध नहीं । इससे यह सिद्ध होता है किं तत्त्वार्थसूत्र के मौलिक पाठ में उपर्युक्त दोनों ही सूत्र थे। श्वेताम्बराचार्यों ने जब उसे अपनाया, तब अपने आगमानुसार उसमें सोलह कल्पों के स्थान में बारह कल्प कर दिये । यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि यदि ऐसा था, तो तीर्थंकर प्रकृतिबन्धक सोलह कारणों के स्थान में श्वेताम्बर - परम्परानुसार बीस कारण क्यों नहीं किये? इसका उत्तर यह है कि श्वेताम्बराचार्यों को कारणों की संख्या सोलह मान लेने में भी कोई सैद्धान्तिक हानि दिखाई नहीं दी होगी, इसलिए उन्होंने उस सूत्र में कोई परिवर्तन नहीं किया । निष्कर्ष यह कि तत्त्वार्थसूत्र में कल्पवासी देवों के बारह भेदों का उल्लेख दिगम्बरमान्यता के विरुद्ध नहीं हैं अतः उसे तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरग्रन्थ होने का हेतु मानना असत्य है । और डॉक्टर साहब ने जो यह कहा है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना उस सचेलाचेलपरम्परा में हुई थी जिससे श्वेताम्बर और यापनीयसंघ उत्पन्न हुए थे और उसी समान मातृ-परम्परा से उन्हें वह उत्तराधिकार में मिला था, वह सर्वथा कपोलकल्पित है। श्वेताम्बरों और यापनीयों की कोई समान मातृपरम्परा थी ही नहीं, श्वेताम्बरसंघ की उत्पत्ति निर्ग्रन्थसंघ (दिगम्बरसंघ) से हुई थी और यापनीयसंघ की श्वेताम्बरसंघ से, यह तथ्य पूर्व (अध्याय २ / प्र.३ एवं ४ ) में सप्रमाण स्थापित किया जा चुका है। अतः जो परम्परा थी ही नहीं, उसमें तत्त्वार्थसूत्र की रचना असंभव है, इसलिए उस परम्परा से उसका श्वेताम्बरों और यापनीयों को प्राप्त होना भी असंभव है। इसलिए डॉक्टर साहब का यह कथन भी मनगढ़ंत है कि दिगम्बरों को तत्त्वार्थसूत्र की प्राप्ति यापनीयों के माध्यम से हुई थी । पूर्वोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र में दिगम्बरमत के सिद्धान्तों का प्रतिपादन है, अतः उसकी रचना दिगम्बरपरम्परा में ही हुई थी। फलस्वरूप दिगम्बरों को किसी अन्य परम्परा से उसके प्राप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy