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________________ २७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ संयम और लज्जा का साधक घोषित किया गया, तब नग्नत्व संयम और लज्जा का घातक स्वयमेव सिद्ध हो गया। अतः तब से किसी भी श्वेताम्बर साधु का नग्न रहना संभव ही नहीं था। सभी साधुओं के लिए वस्त्र धारण करना अनिवार्य कर दिया गया था।३२ इस तरह चूँकि श्वेताम्बरमत में नाग्न्य हेय है, अतः नाग्न्यपरीषह एवं तदाश्रित शीतोष्णदंशमशकादि परीषह श्वेताम्बर साधुओं पर घटित नहीं होते। १.३.६. श्वेताम्बरमत में शीतादिपरीषह निवारणीय हैं, सहनीय नहींश्वेताम्बरमत में वस्त्रधारण को संयम का उपकारी इसीलिए माना गया है कि उससे शीतादिपरीषहों का निवारण होता है। शीतादिनिवारण से आर्तध्यान नहीं होता। आर्तध्यान न होने से ध्यान-अध्ययन की क्रियाएँ निर्विघ्न सम्पन्न होती हैं। वस्त्रधारण करने से शीतनिवारण हेतु अग्नि जलाने की आवश्यकता नहीं रहती, जिससे जीवरक्षारूप संयम का पालन होता है।३ श्वेताम्बर-मतानुसार वस्त्रधारण करने से लज्जारूप लोकधर्म की भी रक्षा होती है३४ और स्त्रीदर्शन से यदि कामवासना के उद्बुद्ध होने पर लिंग में विकार उत्पन्न होता है, तो वह भी प्रकट नहीं हो पाता,३५ जिससे अपने और दूसरे (स्त्रियों) के संयम की रक्षा होती है। इस प्रकार श्वेताम्बरशास्त्रों में शीतादिपरीषहों के निवारण का उपदेश है, सहने का नहीं। सहने को आर्तध्यान की उत्पत्ति का कारण माना गया है और इस तरह यह निष्कर्ष निकाला गया है कि साधु शीतादिपरीषहों को सहन तो कर ही नहीं सकता। यदि शीतादि की पीड़ा से बचने के लिए वह वस्त्रधारण नहीं करता, तो अग्नि जलाकर शीतादि का निवारण करेगा, पर सह नहीं सकेगा। इसलिए परीषह-सहन असंभव होने के कारण अग्नि से शीतपीड़ा-निवारण करने की अपेक्षा वस्त्रधारण करके निवारण करना श्रेयस्कर माना गया है, क्योंकि इस तरह जीवरक्षारूप संयम का पालन होता है। अतः सिद्ध है कि श्वेताम्बरशास्त्रों में परीषहों के निवारण का उपदेश है, सहने का नहीं। तत्त्वार्थाधिगमभाष्य के कर्ता ने भी वस्त्रपात्रादि को धर्म का साधन माना है, इसलिए उनके अनुसार भी यही सिद्ध होता है कि परीषहसहन असम्भव है, अतः वस्त्रधारण कर उनका निवारण करना चाहिए। ३२. "जिनकल्पायोग्यानां साधूनां ह्री-कुत्सा-परीषहलक्षणं वस्त्रधरणकारणं पूर्वाभिहितस्वरूपम वश्यमेव सम्भवति ततो धरणीयमेव वस्त्रम्।" हेम.वृत्ति/विशेषावश्यकभाष्य/गा. २६०२-३। ३३. देखिए, तृतीय अध्याय/द्वितीय प्रकरण/शीर्षक ४ एवं ५। ३४. "वस्त्रधरणे लोकानुवृत्तिधर्म:---लज्जा, व्रीडा, संयमो वा अर्थात् सा रक्षिता भवेद् ।" प्रवचनपरीक्षा/वृत्ति / १/२/३०/ पृ. ९१ । ३५. देखिए, अध्याय ३/पादटिप्पणी १८-क। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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