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________________ अ० १६ / प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २६९ नाग्न्यपरीषह से बचने का एक उपाय था। इस उपाय को अपनानेवाले साधु अर्धफालक कहे जाते थे। २८ इसके अतिरिक्त कम्बल हाथ में होने से ही स्पष्ट है कि उसका उपयोग शीत, दंशमशक आदि परीषहों से बचने के लिए किया जाता था। अतः अर्धफालक साधुओं को न तो नाग्न्यपरीषह होता था, न ही शीत, दंशमशक आदि परीषह। १.३.५. श्वेताम्बरमत में नाग्न्य हेय है-और डॉक्टर साहब ने जो यह कहा है कि ईसवी द्वितीय शताब्दी तक श्वेताम्बर साधु वस्त्र रखते हुए भी प्रायः नग्न रहते थे, वह आचारांगादि के पूर्व उद्धरणों से ही खण्डित हो जाता है, जिनमें कहा गया है कि शीतोष्ण-दंशमशक-नाग्न्यादि परीषहों से बचने के लिए साधु तीन वस्त्र (चादर-कम्बल) भी ग्रहण कर सकता है और यदि शीतादिपरीषह सहने की शक्ति हो, किन्तु नाग्न्यपरीषह सहने में असमर्थ हो, तो उसे केवल कटिबन्ध ही धारण करना चाहिए। अर्थात् नग्नता को छिपाये बिना कोई श्वेताम्बर साधु न तो पहले रह सकता था, न आज रह सकता है, क्योंकि जब से वस्त्रधारण को संयम का साधन मान लिया गया, तब से मुनि का नग्न रहना निर्लज्जता एवं बीभत्सता का प्रदर्शन माना जाने लगा,२९ स्त्रियों के मन में कामविकार का उत्प्रेरक३० तथा स्त्रीदर्शन से स्वयं के शरीर में प्रकट हुए कामविकार को छिपाने में बाधक होने से अश्लीलता का जनक माना जाने लगा, नग्न रहने को निर्लज्जता मानकर ब्रह्मचर्य का विनाशक भी कहा जाने लगा।३१ इस तरह परवर्ती श्वेताम्बराचार्यों ने नग्नत्व को संयम का घातक करार दिया। यद्यपि जम्बू स्वामी के निर्वाण के बाद से ही सभी श्वेताम्बर साधु वस्त्रधारी हो गये थे, तथापि आचारांग और स्थानांग में नग्नत्व की निन्दा नहीं की गई, उसे सचेलत्व से श्रेष्ठ ही माना गया है। किन्तु जब दशवैकालिकसूत्र में वस्त्रधारण को २८. देखिये, अध्याय ६/प्रकरण १/शीर्षक ६। २९. क- "अयं पापात्मा कुलवधूनामप्यवाच्यं दर्शयन् न लज्जत इत्यादि तथाविधाऽऽर्यजनोक्ति स्तव कर्णपथमवतीर्णा तवैव क्रोधोत्पत्तिहेतुर्जायते, तन्निदानं च नग्नरूपतया बीभत्सं त्वदीयं शरीरमेव।" प्रवचनपरीक्षा / वृत्ति /१/२/६/पृ. ७३ । ख- "वस्त्रपरित्यागे लज्जादिमनुष्यधर्मरहितो लोके देवत्तायत्तोऽयमनालाप्यो द्रष्टमप्यकल्प्य इत्याधुपेक्ष्यैव परिह्रियते।" वही/ पृष्ठ ७१। ग- "वस्त्राभावे च रासभादिवदविशेषेण लज्जाराहित्यं स्यात्।" वही/१/२/३० / पृष्ठ ९१ । ३०. क- "प्रागुक्तगुणहेतवे वस्त्राणि बिभ्रति। अन्यथा प्रवचनखिंसादयः स्त्रीजनस्यात्मनश्च मोहोदयादयो बहवो दोषाः स्युः।" वही/पृ. ९५।। ख- "स्त्रीणां दुर्गतयस्तु त्वल्लिङ्गदर्शनेन वेदोदयाद् दुर्ध्यानाद्।" वही/१/२/४१ / पृ. १०३ । ३१. "वस्त्रावृतस्य लज्जया ब्रह्मचर्यं स्याद् अन्यथा वडवादर्शनाद् वाडवस्येव स्त्रीदर्शनाल्लिङ्गा दिविकृत्या प्रवचनोड्डाहाब्रह्मसेवादयो बहवो दोषाः सर्वजनविदिता भवेयुः।" वही/१/२/३०/ पृष्ठ ९१। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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