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________________ ५७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ में कहीं उसका अस्तित्व ही नहीं और पहले भी उसका अस्तित्व नहीं था? यदि प्रो० साहब को वह उल्लेख उपलब्ध नहीं और किसी दूसरे को उपलब्ध हो, तो उसे अनुपलब्ध नहीं कहा जा सकता, भले ही वह उसके द्वारा अभी तक प्रकाश में न लाया गया हो। और यदि किसी के द्वारा प्रकाश में न लाये जाने के कारण ही उसे दूसरों के द्वारा भी अनुपलब्ध कहा जाय और वर्तमान साहित्य में उसका अस्तित्व हो, तो उसे सर्वथा अनुपलब्ध अथवा उस उल्लेख का अभाव नहीं कहा जा सकता। और वर्तमान साहित्य में उस उल्लेख के अस्तित्व का अभाव तभी कहा जा सकता है, जब सारे साहित्य का भले प्रकार अवलोकन करने पर वह उसमें न पाया जाता हो। सारे वर्तमान जैनसाहित्य का अवलोकन न तो प्रो० साहब ने किया है और न किसी दसरे विद्वान के द्वारा ही वह अभी तक हो पाया है। और जो साहित्य लुप्त हो चुका है, उसमें वैसा कोई उल्लेख नहीं था, इसे तो कोई भी दृढ़ता के साथ नहीं कह सकता। प्रत्युत इसके, वादिराज के सामने शक सं० ९४७ में जब रत्नकरण्ड खूब प्रसिद्धि को प्राप्त था और उससे कोई ३० या ३५ वर्ष बाद ही प्रभाचन्द्राचार्य ने उस पर संस्कृत टीका लिखी है और उसमें उसे साफ तौर पर स्वामी समन्तभद्र की कृति घोषित किया है, तब उसका पूर्व साहित्य में उल्लेख होना बहुत कुछ स्वाभाविक जान पड़ता है। वादिराज के सामने कितना ही जैनसाहित्य ऐसा उपस्थित था, जो आज हमारे सामने उपस्थित नहीं है और जिसका उल्लेख उनके ग्रन्थों में मिलता है। ऐसी हालत में पूर्ववर्ती उल्लेख का उपलब्ध न होना कोई खास महत्त्व नहीं रखता और न उसके उपलब्ध न होने मात्र से रत्नकरण्ड की रचना को वादिराज के सम-सामयिक ही कहा जा सकता है, जिसके कारण आप्तमीमांसा और रत्नकरण्ड के भिन्न-कर्तृत्व की कल्पना को बल मिलता। (जै.सा.इ.वि.प्र/खं.१ / पृ. ४५३-४५४)। "दूसरी बात यह है कि उल्लेख दो प्रकार का होता है-एक ग्रन्थनाम का और दूसरा ग्रन्थ के साहित्य तथा उसके किसी विषय-विशेष का। वादिराज से पूर्व का जो साहित्य अभी तक अपने को उपलब्ध है उसमें यदि ग्रन्थ का नाम 'रत्नकरण्ड' उपलब्ध नहीं होता तो उससे क्या? रत्नकरण्ड का पद-वाक्यादि के रूप में साहित्य और उसका विषयविशेष तो उपलब्ध हो रहा है, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि रत्नकरण्ड का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं है? नहीं कहा जा सकता। आ० पूज्यपाद ने अपनी सर्वार्थसिद्धि में स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थों पर से उनके द्वारा प्रतिपादित अर्थ को कहीं शब्दानुसरण के, कहीं भावानुसरण के, कहीं उदाहरण के, कहीं पर्यायशब्दप्रयोग के और कहीं व्याख्यान-विवेचनादि के रूप में पूर्णतः अथवा अंशतः अपनाया है, ग्रहण किया है और जिसका प्रदर्शन मैंने 'सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्र Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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