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अ० १८ / प्र० ४
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५७९ का प्रभाव' नामक अपने लेख में किया है । १०८ उसमें आप्तमीमांसा, स्वयंभूस्तोत्र और युक्त्यनुशासन के अलावा रत्नकरण्ड श्रावकाचार के भी कितने ही पद - वाक्यों को तुलना करके रक्खा गया है, जिन्हें सर्वार्थसिद्धिकार ने अपनाया है, और इस तरह जिनका सर्वार्थसिद्धि में उल्लेख पाया जाता है। अकलङ्कदेव के तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक में भी ऐसे उल्लेखों की कमी नहीं है। उदाहरण के तौर पर तत्त्वार्थसूत्रगत ७वें अध्याय के 'दिग्देशाऽनर्थदण्ड' नामक २१वें सूत्र से सम्बन्ध रखनेवाले 'भोगपरिसंख्यानं पञ्चविधं त्रसघात-प्रमाद-बहुवधाऽनिष्टाऽनुप- सेव्यविषयभेदात्' इस उभय- वार्तिकगत वाक्य १० १०८.१ और इसकी व्याख्याओं को रत्नकरण्ड के 'त्रसहतिपरिहरणार्थं,' 'अल्पफलबहुविघातात्, ' 'यदनिष्टं तद् व्रतयेत्' इन तीन पद्यों (नं० ८४, ८५, ८६) के साथ तुलना करके देखना चाहिए, जो इस विषय में अपनी खास विशेषता रखते हैं।" (जै. सा. इ. वि.प्र./ खं. १ / पृ. ४५४-४५५) ।
" परन्तु मेरे उक्त लेख पर से जब रत्नकरण्ड और सर्वार्थसिद्धि के कुछ तुलनात्मक अंश उदाहरण के तौर पर प्रो० साहब के सामने बतलाने के लिए रक्खे गये कि 'रत्नकरण्ड सर्वार्थसिद्धि के कर्ता पूज्यपाद से भी पूर्व की कृति है और इसलिये रत्नमाला के कर्ता शिवकोटि के गुरु उसके कर्ता नहीं हो सकते' तो उन्होंने उत्तर देते हुए लिख दिया कि " सर्वार्थसिद्धिकार ने उन्हें रत्नकरण्ड से नहीं लिया, किन्तु सम्भव है रत्नकरण्डकार ने ही अपनी रचना सर्वार्थसिद्धि के आधार से की हो।" साथ ही, रत्नकरण्ड के उपान्त्यपद्य 'येन स्वयं वीतकलङ्कविद्या, ' (१४९) को लेकर एक नई कल्पना भी कर डाली और उसके आधार पर यह घोषित कर दिया कि 'रत्नकरण्ड की रचना न केवल पूज्यपाद से पश्चात्कालीन है, किन्तु अकलङ्क और विद्यानन्द से भी पीछे की है।' और इसी को आगे चलकर चौथी आपत्ति का रूप दे दिया। यहाँ भी प्रोफेसर साहब ने इस बात को भुला दिया कि 'शिलालेखों के उल्लेखानुसार कुन्दकुन्दाचार्य के उत्तरवर्ती जिन समन्तभद्र को रत्नकरण्ड का कर्ता बतला आए हैं, उन्हें तो शिलालेखों में भी पूज्यपाद, अकलङ्क और विद्यानन्द का पूर्ववर्ती लिखा है, तब उनके रत्नकरण्ड की रचना अपने उत्तरवर्ती पूज्यपादादि के बाद की अथवा सर्वार्थसिद्धि के आधार पर की हुई कैसे हो सकती है?' अस्तु, इस विषय में विशेष विचार चौथी आपत्ति के विचाराऽवसर पर ही किया जायगा ।" (जै.सा. इ. वि.प्र./ खं. १ / पृ. ४५५) ।
७वीं शती ई. के 'न्यायावतार' में 'रत्नकरण्ड' का पद्य – “यहाँ पर मैं साहित्यिक उल्लेख का एक दूसरा स्पष्ट उदाहरण ऐसा उपस्थित कर देना चाहता
१०८. अनेकान्त / वर्ष ५ / किरण १०-११ / पृ. ३४५-३५२ । १०८.१ तत्त्वार्थराजवार्तिकगत (७ / २१ / २७) एवं श्लोकवार्तिकगत वाक्य ।
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