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________________ ५१८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ ८. २. सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि की 'पञ्चवस्तु' में सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन के लिए 'दिवाकर' उपनाम का प्रयोग " श्वेताम्बरसम्प्रदाय में आचार्य सिद्धसेन प्रायः दिवाकर विशेषण अथवा उपपद (उपनाम) के साथ प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। उनके लिये इस विशेषण - पद के प्रयोग का उल्लेख श्वेताम्बरसाहित्य में सबसे पहले हरिभद्रसूरि के पञ्चवस्तु ग्रन्थ में देखने को मिलता है, जिसमें उन्हें दुःषमाकालरूप रात्रि के लिये दिवाकर (सूर्य) के समान होने से ‘दिवाकर' की आख्या को प्राप्त हुए लिखा है । ६° इसके बाद से ही यह विशेषण उधर प्रचार में आया जान पड़ता है, क्योंकि श्वेताम्बरचूर्णियों तथा मल्लवादी के नयचक्र - जैसे प्राचीन ग्रन्थों में, जहाँ सिद्धसेन का नामोल्लेख है, वहाँ उनके साथ में 'दिवाकर' विशेषण का प्रयोग नहीं पाया जाता है । ६१ हरिभद्र के बाद विक्रम की ११वीं शताब्दी के विद्वान् अभयदेवसूरि ने सन्मतिटीका के प्रारम्भ में उसे उसी दुःषमाकालरात्रि के अंधकार को दूर करनेवाले के अर्थ में अपनाया है । ६२ " श्वेताम्बरसम्प्रदाय की पट्टावलियों में विक्रम की छठी शताब्दी आदि की जो प्राचीन पट्टावलियाँ हैं, जैसे कल्पसूत्रस्थविरावली (थेरावली ), नन्दीसूत्रपट्टावली, दुःषमाकालश्रमणसंघ - स्तव, उनमें तो सिद्धसेन का कहीं कोई नामोल्लेख ही नहीं है । दुःषमाकालश्रमणसंघ की अवचूरि में, जो विक्रम की ९वीं शताब्दी से बाद की रचना है, सिद्धसेन नाम जरूर है, किन्तु उन्हें 'दिवाकर' न लिखकर प्रभावक लिखा है और साथ ही धर्माचार्य का शिष्य सूचित किया है, वृद्धवादी का नहीं - " अत्रान्तरे धर्माचार्य-शिष्य - श्रीसिद्धसेन - प्रभावकः ॥" " दूसरी विक्रम की १५वीं शताब्दी आदि की बनी हुई पट्टावलियों में भी कितनी ही पट्टावलियाँ ऐसी हैं, जिनमें सिद्धसेन का नाम नहीं है, जैसे कि गुरुपर्वक्रमवर्णन, तपागच्छ-पट्टावलीसूत्र, महावीरपट्टपरम्परा, युगप्रधानसम्बन्ध ( लोकप्रकाश) और सूरिपरम्परा। हाँ, तपागच्छपट्टावलीसूत्र की वृत्ति में, जो विक्रम की १७वीं शताब्दी (सं० (१६४८ ) की रचना है, सिद्धसेन का दिवाकर विशेषण के साथ उल्लेख जरूर पाया ६०. आयरियसिद्धसेणेण सम्मइए पइट्ठिअजसेणं । दूसमणिसा - दिवागर - कप्पन्तणओ तदक्खेणं ॥ १०४८॥ ६१. देखिए, सन्मतिसूत्र की गुजराती प्रस्तावना / पृ. ३६, ३७ पर निशीथचूर्णि ( उद्देश ४) और दशाचूर्णि के उल्लेख तथा पिछले समय सम्बन्धी प्रकरण में उद्धृत नयचक्र के उल्लेख ६२. " इति मन्वान आचार्यो दुषमाऽरसमाश्यामासमयोद्भूतसमस्तजनाहार्दसन्तमसविध्वंसकत्वेनावाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः तदुपायभूतसम्मत्याख्यप्रकरणकरणे प्रवर्तमान:--- स्तवाभिधायिकां गाथामाह । " Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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