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________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५१७ सदा ही लोकहृदयों में अपना सिक्का जमाए रक्खें, अपने वचन - प्रभाव को अङ्कित किये रहें ।' "यहाँ सिद्धसेन का कविरूप में स्मरण किया गया है और उसी में उनके वादित्वगुण को भी समाविष्ट किया गया है। प्राचीन समय में कवि साधारण कविता - शायरी करनेवालों को नहीं कहते थे, बल्कि उस प्रतिभाशाली विद्वान् को कहते थे, जो नये-नये सन्दर्भ, नई-नई मौलिक रचनाएँ तैयार करने में समर्थ हो अथवा प्रतिभा ही जिसका उज्जीवन हो, जो नाना वर्णनाओं में निपुण हो, कृती हो, नाना अभ्यासों में कुशाग्रबुद्धि हो और व्युत्पत्तिमान् (लौकिक व्यवहारों में कुशल) हो । ५८ दूसरे पद्य में सिद्धसेन को केशरी - सिंह की उपमा देते हुए उसके साथ जो नय- केशरः और विकल्प-नखराङ्कुरः जैसे विशेषण लगाये गये हैं, उनके द्वारा खासतौर पर सन्मतिसूत्र लक्षित किया गया है, जिसमें नयों का ही मुख्यतः विवेचन है और अनेक विकल्पों द्वारा प्रवादियों के मन्तव्योंमान्यसिद्धान्तों का विदारण (निरसन) किया गया है। इसी सन्मतिसूत्र का जिनसेन ने जयधवला में और उनके गुरु वीरसेन ने धवला में उल्लेख किया है और उसके साथ घटित किये जानेवाले विरोध का परिहार करते हुए उसे अपना एक मान्य ग्रन्थ प्रकट किया है, जैसा कि इन सिद्धान्तग्रन्थों के उन वाक्यों से प्रकट है, जो इस लेख के प्रारम्भिक फुटनोट में उद्धृत किये जा चुके हैं। "" "नियमसार की टीका (पद्य ३) में पद्मप्रभ- मलधारिदेव ने 'सिद्धान्तोद्ध श्रीधवं सिद्धसेनं --- वन्दे' वाक्य के द्वारा सिद्धसेन की वन्दना करते हुए उन्हें 'सिद्धान्त की जानकारी एवं प्रतिपादनकौशलरूप उच्चश्री के स्वामी' सूचित किया है। प्रतापकीर्ति ने आचार्यपूजा के प्रारंभ में दी हुई गुर्वावली में "सिद्धान्तपाथोनिधिलब्धपारः श्रीसिद्धसेनोऽपि गणस्य सारः ' इस वाक्य के द्वारा सिद्धसेन को 'सिद्धान्तसागर के पारगामी ' और 'गण के सारभूत' बतलाया है। मुनि कनकामर ने करकंडुचरिउ में सिद्धसेन को समन्तभद्र तथा अकलङ्कदेव के समकक्ष 'श्रुतजल के समुद्र' ५९ रूप में उल्लेखित किया है। ये सब श्रद्धांजलिमय दिगम्बर - उल्लेख भी सन्मतिकार - सिद्धसेन से सम्बन्ध रखते हैं, जो खास तौर पर सैद्धान्तिक थे और जिनके इस सैद्धान्तिकत्व का अच्छा आभास ग्रन्थ के अन्तिम काण्ड की उन गाथाओं ( ६१ आदि) से भी मिलता है, जो श्रुतधर - शब्दसन्तुष्टों, भक्तसिद्धान्तज्ञों और शिष्यगणपरिवृत- बहुश्रुतमन्यों की आलोचना को लिए हुए हैं।" (पु. जै. वा. सू / प्रस्ता. / पृ. १५७–१५९) । ५८. “कविर्नूतनसन्दर्भः ।" प्रतिभोज्जीवनो नाना-वर्णना- निपुणः कविः । नानाऽभ्यास-कुशाग्रीयमतिर्व्युत्पत्तिमान् कविः ॥ अलङ्कारचिन्तामणि । ५९. " तो सिद्धसेण सुसमंतभद्द अकलंक देव सुअजलसमुद्द।" क.२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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