SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१६ / प्र०२ तत्त्वार्थसूत्र / ३५३ में अपना विस्तारपूर्वक परिचय दिया है। किसके शिष्य थे, किसके प्रशिष्य थे, किस गोत्र में, किस पिता और माता से किस शाखा में किस जगह उत्पन्न हुए थे और गुरुपरम्परा से चले आते हुए अर्हद्वचन को अच्छी तरह धारण कर संसार के दुःखी प्राणियों पर दया करके किस प्रकार उन उमास्वाति ने तत्त्वार्थाधिगम नामक शास्त्र को स्पष्ट किया (अर्थ प्रकट किया ), इत्यादि विषय का पूर्ण विवरण दिया है।४१ यह विस्तृत आत्मपरिचय सूत्रग्रन्थ और भाष्यग्रन्थ में पिरोया गया सर्वथा नवीन विषय है, जिससे प्रमाणित होता है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की शैली सर्वार्थसिद्धि की शैली से कई कदम आगे है। ४. किसी भी भाष्यग्रन्थ में अध्याय के अंत में श्लोकबद्ध उपसंहार नहीं मिलता। सर्वार्थसिद्धि में भी नहीं है। किन्तु तत्त्वार्थाधिगमसूत्र के प्रथम अध्याय में वर्णित विषय का उसी अध्याय के भाष्य के अन्त में श्लोकबद्ध उपसंहार किया गया है। सूत्र ६/९ की व्याख्या में संरभ आदि का लक्षण भी श्लोक में निबद्ध किया गया है। यह भी निरूपणशैली की विकासयात्रा में रखा गया एक नया कदम है। ५. सर्वार्थसिद्धि के पद्यों में आलंकारिक प्रयोग अल्प हुए हैं, जबकि भाष्य में इनकी बहुलता दृष्टिगोचर होती है। सर्वार्थसिद्धि में केवल दशम अध्याय के अन्त में पठित निम्न पद्य में अतिशयोक्ति अलंकार प्रयुक्त हुआ है तत्त्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या। हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तै मामरेश्वरसुखेषु किमस्ति वाच्यम्॥ २॥ अनुवाद-"समस्त तत्वों को जानकर जो इस तत्त्वार्थवृत्ति को धर्मभक्ति से सुनते हैं और पढ़ते हैं, समझ लीजिए कि मोक्षसुखरूपी अमृत उनके हाथ में ही आ गया है, फिर चक्रवर्ती और देवेन्द्र के सुखों की तो बात ही क्या?" किन्तु तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (पृ.११) की निम्न सम्बन्धकारिकाओं में तो निदर्शना अलंकारों की झड़ी लगा दी गई है महतोऽतिमहाविषयस्य दुर्गमग्रन्थभाष्यपारस्य। कः शक्तः प्रत्यासं जिनवचनमहोदधेः कर्तुम्॥ २३॥ शिरसा गिरि बिभत्सेदुच्चिक्षिप्सेच्च स क्षितिं दोाम्। प्रतितीर्षेच्च समुद्रं मित्सेच्च पुनः कुशाग्रेण॥ २४॥ १४१. वही/प्रशस्ति-श्लोक १-६/पृ. ४७१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy