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११२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र० ३
सभी उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने अनुसरण किया है। उदाहरणार्थ सन् १९३५ ई० में स्वामी देवेन्द्रकीर्ति दिगम्बर जैन ग्रंथमाला शोलापुर द्वारा प्रकाशित भगवती - आराधना के हिन्दी अर्थकर्त्ता पं० जिनदास पार्श्वनाथ शास्त्री फडकुले ने तथा सन् १९७८ में जैन संस्कृति संरक्षक संघ शोलापुर एवं सन् १९९० में हीरालाल खुशालचन्द दोशी फलटण द्वारा प्रकाशित भगवती - आराधना के अनुवादक सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचंद्र जी शास्त्री ने पं० आशाधर जी का अनुसरण करते हुए 'इत्थीवि य जं लिंगं दिट्ठे' गाथा के अर्थ में लिखा है कि भक्तप्रत्याख्यान करनेवाली आर्यिका एवं श्राविका को एकान्त स्थान में मुनिवत् नग्नरूप धारण करना चाहिए। क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णी ने भी जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश (भाग ३ / पृ.४१७) में ऐसा ही उल्लेख किया है।
उपर्युक्त दस प्रमाणों से सिद्ध है कि इन सभी टीकाओं या अनुवादों में प्ररूपित उक्त धारणा भ्रान्तिपूर्ण है । भगवती आराधना में वर्णित उक्त गाथा की समीचीन व्याख्या श्री अपराजितसूरि ने विजयोदयाटीका में की है । उसमें उन्होंने गाथा का यह अर्थ बतलाया है कि भक्तप्रत्याख्यानकाल में आर्यिका को एकान्त और सार्वजनिक, दोनों स्थानों में वही साड़ीमात्र-परिग्रहरूप उत्सर्गलिङ्ग धारण करना चाहिए, जो वे भक्तप्रत्याख्यान के पूर्व धारण करती हैं तथा जो श्राविकाएँ अतिवैभवसम्पन्न, लज्जालु अथवा मिथ्यादृष्टि परिवार की हैं, वे सार्वजनिक स्थान में तो अपना पूर्वगृहीत अनेकवस्त्रात्मक अपवादलिंग ही ग्रहण करें, किन्तु एकान्तस्थान उपलब्ध हो, तो आर्यिकावत् एकवस्त्ररूप उत्सर्गलिङ्ग धारण करें। अन्य श्राविकाओं को दोनों स्थानों में आर्यिकावत् उत्सर्गलिंग ही ग्रहण करना चाहिए ।
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