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________________ अ० १४ / प्र० २ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १८३ प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी में भी उपलब्ध होता है। इस हेतु के भी असत्य होने से सिद्ध है कि अपराजितसूरि यापनीय - परम्परा के नहीं, अपितु दिगम्बर- परम्परा के हैं। १० सात घरों से भिक्षा दिगम्बरमतानुकूल यापनीयपक्ष "मूलाचार, भगवती - आराधना और विजयोदयाटीका में वृत्तिपरिसंख्यान तप के विवेचन-प्रसंग में सातघरों से भिक्षा लेने का उल्लेख पाया जाता है, वह दिगम्बरपरम्परा के अनुकूल नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि यापनीयों में श्वेताम्बरों के अनुरूप पात्र में आहार लाकर आपवादिक स्थिति में उपाश्रय में आहार ग्रहण करने की परम्परा रही होगी । यह परम्परा यापनीयों की ही हो सकती है, दिगम्बरों की नहीं, क्योंकि यापनीय अपवादमार्ग में पात्र में भिक्षा ग्रहण करना मान्य करते थे ।" (जै.ध.या.स./पृ.१५९-१६०)। दिगम्बरपक्ष यह कथन मूलाचार में नहीं है, न ही भगवती - आराधना में है। भगवती आराधना की उस गाथा में भी नहीं है, जिसकी टीका में अपराजितसूरि ने उपर्युक्त बात कही है । वह गाथा इस प्रकार है दंसणणाणादिचारे वदादिचारे तवादिचारे य । देसच्चाए विविधे सव्वच्चाए य आवण्णो ॥ ४८९ ॥ भ.आ. । अतः यापनीयपक्षधर ग्रन्थलेखक का यह कथन भी असत्य है कि सातघरों से भिक्षा लेने का उल्लेख मूलाचार और भगवती - आराधना में भी है। वह वरांगचरित और विजयोदयाटीका में उपलब्ध है। विजयोदया में वह इस प्रकार है " "वृत्तिपरिसंख्यानस्यातिचाराः गृहसप्तकमेव प्रविशामि एकमेव पाटं, दरिद्रगृहमेव । एवंभूतेन दायकेन दायिकया वा दत्तं ग्रहीष्यामीति वा कृतसङ्कल्पः गृहसप्तकादिकादधिक-प्रवेशः, पाटान्तरप्रवेशश्च परं भोजयामीत्यादिकः । " (भ.आ./ गा. 'दंसणणाणादिचारे' ४८९ ) । Jain Education International अनुवाद—“वृत्तिपरिसंख्यान तप के अतिचार इस प्रकार हैं- भिक्षा के लिए सात ही घरों में प्रवेश करूँगा या एक ही मुहल्ले में जाऊँगा अथवा दरिद्र के ही घर जाऊँगा या इस प्रकार के दाता या दात्री के ही द्वारा दिया गया आहार ग्रहण करूँगा, ऐसा संकल्प करने के बाद 'दूसरे (साधु) को भोजन करा आऊँ' इस विचार For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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