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________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / २५७ अन्यतैर्थिक के वेश) एवं गृहीलिंग (गृहस्थवेश) से मुक्ति की सम्भावना को स्वीकार किया गया है। सूत्रकृतांगसूत्र में नमि, बाहुक, असितदेवल, नारायण आदि ऋषियों के द्वारा अन्य परम्परा के आचार एवं वेशभूषा का अनुसरण करते हुए भी सिद्धि प्राप्त करने का स्पष्ट उल्लेख है। ऋषिभाषित में औपनिषदिक, बौद्ध एवं अन्य श्रमणपरम्परा के ऋषियों को अर्हत् ऋषि कह कर सम्मानित किया गया है।" (डॉ.सा. म.जै.अभि.ग्र./पृ. ४०४-४०५)। इस प्रकार अन्यमत-प्रतिपादित आचार-विचार, कर्मकाण्ड, बाह्य वेश और बाह्य उपकरणों के अवलम्बन को अन्यलिंग या परतीर्थ कहते हैं। भाष्यकार (उमास्वाति) का मत है कि उसे धारण करते हुए भी यदि समभाव, वीतरागभाव या कषायाभावरूप भावलिंग की प्राप्ति हो जाती है, तो मनुष्य मुक्त हो सकता है। श्वेताम्बर-आगमों में अन्यलिंग को कुलिंग कहा गया है और बतलाया गया है कि वह केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं है, इसलिए अपूज्य है। फिर भी कुलिंगी को भावलिंग की प्राप्ति और उससे केवलज्ञान की उत्पत्ति स्वीकार की गई है। किन्तु तत्त्वार्थसूत्र में कुलिंगी (अन्यलिंगी) को भावलिंग की प्राप्ति का निषेध किया गया है। उसमें "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" (१/१) सूत्र द्वारा स्पष्ट किया गया है कि सम्यग्दृष्टि को ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। और सम्यग्दृष्टि उसे कहा गया है जो जिनोपदिष्ट तत्त्वार्थों का श्रद्धान करे अर्थात् जिनेन्द्र ने जिन तत्त्वों को बन्ध और मोक्ष का हेतु बतलाया है, उन्हें ही बन्ध और मोक्ष का हेतु माने। और जिस जीव में जिनोपदिष्ट-तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन होगा, वह जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग का ही . अवलम्बन करेगा, यह स्वतः सिद्ध है। जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग का ही वर्णन सूत्रकार ने तत्त्वार्थसूत्र में किया है। उसमें नाग्न्य परीषह१ तथा नाग्न्यलिंग पर आश्रित शीतोष्णदंशमशक आदि परीषहों को समभाव से सहने की साधना को संवर और निर्जरा का हेतु बतलाया है।२ इससे स्पष्ट है १०. "ननु केवलं केवलज्ञानं कुलिङ्गेऽपि वर्तमानानामन्यतीर्थिकानां भवतीत्यागमे श्रूयते। तत् किमिति स्थानबुद्ध्या तत् पूज्यं नेष्यते? गुरुराह-तत् केवलज्ञानं भावलिङ्गतो भवति, न पुनस्ततः कुलिङ्गात्, तस्य केवलज्ञानानङ्गत्वात्। मुनिलिङ्गं पुनर्यस्मादङ्गभावं केवलज्ञानस्य कारणतां याति, तेन तस्मात् तत्पूज्यमिति।" हेम.वृत्ति/विशे.भा./गा. ३२९३। ११. नग्नता के कारण होने वाले लोकापवाद से विचलित न होना और नग्नत्व को दूषित करनेवाले कामविकार को जीतना नाग्न्यपरीषहजय है। (तत्त्वार्थराजवार्तिक /९/९/१०)। १२. "मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः" तत्त्वार्थसूत्र /श्वे/९/८। __ "क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारतिस्त्री---" तत्त्वार्थसूत्र / श्वे./९/९।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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