SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०१ कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने नग्नत्वरूप निर्ग्रन्थलिंग को सुलिंग (प्रशस्त द्रव्यलिंग) माना है। और इस सुलिंगधारी को ही महाव्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्र, तप और ध्यान की साधना के योग्य स्वीकार किया है। क्योंकि नग्नत्व के बिना देहसुखेच्छात्मक-मूर्छा-परित्यागरूप अपरिग्रह-महाव्रत सम्भव नहीं है। और अपरिग्रहमहाव्रत के बिना अहिंसादि महाव्रत असंभव हैं। उनके बिना गुप्ति, समिति आदि संवर और निर्जरा के उपायों का प्रयोग नहीं हो सकता। इस प्रकार संवर और निर्जरा की बुनियाद नाग्न्य-लिंग है। इस नाग्न्यलिंग के आश्रय से ही महाव्रतादि की सम्यक् साधना होती है, जिससे संवर और निर्जरा द्वारा मोहनीयकर्म का क्षय होकर यथाख्यातचारित्ररूप परमभावलिंग प्राप्त होता है और उसके प्राप्त होने पर एकत्ववितर्कावीचार शुक्लध्यान द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीन घाती कर्मों का एक साथ क्षय होकर केवलज्ञान प्रकट होता है। (त.सू./१०/१-२)। • तत्त्वार्थसूत्रकार ने केवलज्ञानोत्पत्ति की उपुर्यक्त व्यवस्था दी है। और सम्पूर्ण ग्रन्थ में उक्त व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं दिया है। अतः उनके अनुसार नाग्न्यलिंग से ही केवल-ज्ञानोत्पादक भावलिंग की सिद्धि हो सकती है, अन्यलिंगरूप कुलिंग से नहीं। उनकी इस व्यवस्था के अनुसार जो व्यक्ति नग्नत्वरूप सुलिंग से भिन्न केवलज्ञान के अनुत्पादक अन्यलिंग (कुलिंग) को अपनाता है, वह जिनोपदिष्ट तत्त्वों में श्रद्धा न करने के कारण मिथ्यादृष्टि है। जो लिंग केवलज्ञान का साधक नहीं है, अत एव अपूज्य है, उसे अपनाना निपट अविवेकपूर्ण कार्य है। ऐसा कार्य करना घोर मिथ्यात्व का लक्षण है। और मिथ्यादृष्टि में मिथ्यात्व के साथ अनन्तानुबन्धी आदि सभी प्रकार की कषायों का सदा उदय रहता है, फलस्वरूप उसमें निष्कषायभाव, समभाव या वीतरागभावरूप भावलिंग की उत्पत्ति कभी नहीं हो सकती। इस तथ्य का निरूपण तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' प्रथमाध्याय के इस प्रथम सूत्र में ही सम्यग्रूपेण कर दिया है। विचारणीय बात यह है कि कुलिंगी ऐसे लिंग को क्यों अपनाता है, जो केवलज्ञान की उत्पत्ति का कारण नहीं है? अन्यथानुपपत्ति से यही सिद्ध होता है कि वह ख्याति, लाभ, पूजा, तन्त्रमन्त्रसिद्धि, स्वर्गादि की प्राप्ति आदि लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के लिए ऐसा करता है। लौकिक प्रयोजनों की आकांक्षा, मूर्छारूप परिग्रह के सद्भाव का प्रमाण है, क्योंकि इच्छा, आकांक्षा, काम, अभिलाष, गृद्धि आदि का ही नाम मूर्छा है, भाष्यकार ने यह स्वयं स्वीकार किया है।१३ अतः जहाँ निदानपरिणामभूत१४ इच्छा १३. "चेतनावत्स्वचेतनेषु च बाह्याभ्यन्तरेषु द्रव्येषु मूर्छा परिग्रहः। इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काडक्षा गायें मछेत्यनर्थान्तरम।" तत्त्वार्थधिगमभाष्य ७/१२। १४. "निदानं विषयभोगाकाङ्क्षा।" सर्वार्थसिद्धि ७/१८। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy