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________________ अ० १६ / प्र० १ तत्त्वार्थसूत्र / २५९ या मूर्च्छा का अस्तित्व है, वहाँ मिथ्यात्वसहित अनन्तानुबन्धी आदि सभी कषायों का सदा उदय रहने से वीतरागभावरूप भावलिङ्ग का अभाव सिद्ध है। इस सत्य का प्ररूपण तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'मूर्च्छा परिग्रहः' (त.सू. / श्वे. / ७/१२) और 'निःशल्यो व्रती' (त.सू./ श्वे. / ७ /१३) सूत्रों में किया है। कापालिक (सरजस्क) आदि कुलिंगियों के पास वस्त्रशस्त्र, अस्थिकपाल, " रुद्राक्ष, गंडा - ताबीज, झोली, सोना-चाँदी आदि बाह्यपरिग्रह भी होता है। वे मन्त्र-तन्त्र की सिद्धि के लिए श्मसान में मानवशवों के साथ बीभत्स प्रयोग करते हैं। मद्यमांससेवन, रात्रिभोजन, अगालित जलपान आदि हिंसात्मक प्रवृत्तियों में संलग्न रहते हैं । अनेक अन्यलिंगी पंचाग्नितप करते हैं, अग्नि प्रज्वलित कर शीत निवारण करते हैं । इन सब क्रियाओं से प्राणातिपात होता है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने 'अशुभः पापस्य' (त.सू./ श्वे./६/४), ‘दुःखशोकतापाक्रन्दन-वधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसद्वेद्यस्य' (त.सू./ श्वे./६ /१२), तथा ‘बह्वारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्यायुषः' (त.सू./ श्वे. /६/१६) इन सूत्रों के द्वारा उपर्युक्त हिंसादिपाप करनेवालों को नारकायु तथा असातावेदनीय आदि पापकर्मों के बन्ध का कर्त्ता कहा है। इससे यह स्वयमेव फलित होता है कि जिनके भीतर नारकायु एवं असातावेदनीय के बन्धयोग्य परिणामों की धारा प्रवाहित होती है, उन्हें वीतरागभावरूप भावलिंग के प्राप्त होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती । तत्त्वार्थसूत्रकार ने नाग्न्यपरीषहजय को संवर - निर्जरा का कारण बतलाया है, जिसका तात्पर्य यह है कि नाग्न्य - परीषह सहनेवाले नग्नमुनि में समभावरूप भावलिंग का अस्तित्व होता है । इस कथन से कुलिंगी में भावलिंग की उत्पत्ति का निषेध हो जाता है, क्योंकि कुलंगी वस्त्र होता है । वह तीन कारणों से वस्त्र त्यागने का साहस नहीं कर पाता । वे तीन कारण हैं - १. शीतोष्णदंशमशकादिजन्य देहपीड़ा का भय, २ . निर्लज्जता ( कामुकता को प्रकट करने) के दोषारोपण का भय और ३. कामविकार के प्रकट हो जाने का भय । पहला कारण देहसुख में राग के अस्तित्व का सूचक है, दूसरा लोकप्रतिष्ठा में राग के अस्तित्व का और तीसरा विषयसुख में राग के अस्तित्व का । जब तक वस्त्रत्याग की सामर्थ्य का अभाव है, तब तक इन तीनों प्रकार के राग का सद्भाव है, यह अनुमानगम्य है, क्योंकि इनमें कारणकार्य - सम्बन्ध है । अतः कुलिंगी में इन तीन प्रकार के रागों का सद्भाव होने से वीतरागतारूप भावलिंग की उत्पत्ति असंभव है, यह सिद्ध होता है। १५. “सरजस्कानामस्थ्यादिपरिग्रहात् । " शीलांकाचार्यवृत्ति / आचारांग १/५/२/१५० / पृ. १८७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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