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________________ अ०१४/प्र०२ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १७५ ___ इस प्रकार 'रात्रिभोजनत्यागवत' केवल यापनीयसम्प्रदाय से सम्बद्ध नहीं है, दिगम्बरसम्प्रदाय में भी मान्य है। अतः विजयोदयाटीका को यापनीयकृति सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया यह हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है, हेतु नहीं। अतः सिद्ध है कि विजयोदयाटीका यापनीयकृति नहीं है। इसलिए अपराजितसूरि यापनीयआचार्य नहीं हैं, अपितु दिगम्बराचार्य हैं। अथालन्दसंयमादि दिगम्बरमान्य यापनीयपक्ष "विजयोदयाटीका में जिनकल्प, परिहारसंयम, आलन्द, विजहना आदि के आचार की जिन विशिष्ट विधियों का वर्णन है, उनका वर्णन दिगम्बरसाहित्य में नहीं है, जब कि श्वेताम्बरमान्य साहित्य में मिलता है। इससे भी अपराजित के यापनीय होने की संभावना पुष्ट होती है।" (जै.ध.या.स./पृ.१५९)। दिगम्बरपक्ष १. विजयोदयाटीका में पूर्ववर्णित यापनीयमत-विरुद्ध सिद्धान्तों से सिद्ध है कि वह दिगम्बरसाहित्य है, अतः उपर्युक्त विधियों का वर्णन दिगम्बरसाहित्य में प्रत्यक्षतः मिलता है। २. अथालन्दसंयम, परिहारसंयम तथा जिनकल्प का जो स्वरूप विजयोदया में वर्णित है, वह श्वेताम्बरग्रन्थों में वर्णित स्वरूप के विरुद्ध है। दोनों के परस्परविरोधी स्वरूप की थोड़ी सी झलक यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। · श्वेताम्बरग्रन्थों में अथालन्दकादि का स्वरूप श्वेताम्बरग्रन्थों में अथालन्दकादि संयतों ५२ का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है५२. "अहालंद-अथ (यथा) लन्द। अथेत्यव्ययम्। लन्दशब्देन काल उच्यते। --- स पुनः कालस्त्रिधा-उत्कृष्टो मध्यमो जघन्यश्च । तत्र उदकाः करो यावता कालेन इह सामान्येन लोकेषु शुष्यति तावान् कालविशेषो भवति जघन्यः। अस्य च जघन्यत्वं प्रत्याख्यान-नियमविशेषादिषु विशेषत उपयोगित्वात्। अन्यथाऽतिसूक्ष्मतरस्यापि समयादिलक्षणस्य सिद्धान्तोक्तस्य कालस्य सम्भवात्। --- उत्कृष्टः पूर्वकोटिप्रमाणः, अयमपि चारित्रकालमानमाश्रित्य उत्कृष्ट उक्तः। अन्यथा पल्योपमादिरूपस्यापि कालस्य सम्भवात्। मध्ये पुनर्भवन्त्यनेकानि स्थानानि वर्षादिभेदेन कालस्य। अत्र पुनर्यथालन्दकस्य प्रक्रमे पञ्चरात्रं यथेत्यागमानतिक्रमेण लन्दं काल उत्कृष्टं भवति, तेनैवात्रोपयोगात्।" अभिधानराजेन्द्रकोष/ भाग १/पृ.८६७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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