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________________ अ०२१ / प्र०२ हरिवंशपुराण / ७०७ का अभाव द्योतित किया गया है, वैसे ही हरिवंशपुराण के पूर्वोक्त श्लोक (६४/९४) में भूतार्थग्राहिनय (मोक्ष के साक्षात् साधक निर्ग्रन्थलिंग से पूर्ववर्ती लिंग को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से सिद्धि का कथन किया गया है और प्रत्युत्पन्नग्राहिनय (मोक्ष के साक्षात् साधक लिंग को ग्रहण करनेवाले नय) की अपेक्षा सग्रन्थलिंग से सिद्धि का निषेध किया गया है। इस प्रकार सग्रन्थलिंग से सिद्धि होने अथवा न होने के अनेकान्त का प्रतिपादन हरिवंशपुराणकार ने ही सर्वार्थसिद्धि के आधार पर किया है, किसी अन्य के द्वारा छेड़छाड़ करके आरोपित नहीं किया गया। डॉ० सागरमल जी का कथन है कि "प्रस्तुत प्रसंग में (अर्थात् “निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा"-ह.पु./६४/९४, इस प्रसंग में) भी पं० पन्नालाल जी ने प्रत्युत्पन्ननय और भूतार्थनय के आधार पर व्याख्या करने का प्रयत्न किया है, किन्तु जिस प्रकार इसके पूर्व के पद्यों में इन नयों का स्पष्ट शब्दों में अध्याहार किया गया है, वैसा इस पद्य में नहीं है। यदि लेखक को इन नयों के आधार पर विवेचन करना होता, तो वह स्वयं उसका मूल पद्य में उल्लेख करता।" (जै.ध.या.स/पृ. १७५)। डॉक्टर सा० का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। किसी पद्य या सूत्र में शब्दविशेष का उल्लेख न किये जाने पर भी तात्पर्योपपत्ति के लिए उसे उसी प्रकरण या अधिकार के पूर्वपद्य या सूत्र से ग्रहण कर लेना अध्याहार कहलाता है। इस नियम के अनुसार “निर्ग्रन्थेन च लिङ्गेन सग्रन्थेनाथवा न वा" इस पद्यभाग में प्रत्युत्पन्न और भतग्राही नय पर्व पद्यों से अध्याहरणीय हैं. क्योंकि उनके अध्याहार के बिना तात्पर्य की उपपत्ति नहीं होती। इसका कारण यह है कि इसी पद्यभाग के पूर्वार्ध में यह कहा जा चुका है कि द्रव्यवेद या द्रव्यलिंग की अपेक्षा पुंल्लिंग से ही सिद्धि (मुक्ति) होती है, स्त्रीलिंग या नपुंसकलिंग से नहीं-"न द्रव्याद् द्रव्यतः सिद्धिः पुल्लिङ्गेनैव निश्चिता।" इससे स्त्रीमुक्ति का स्पष्ट शब्दों में निषेध हो जाता है। तथा "लोचास्नानैकभक्तं च स्थितिभुक्तिरचेलता" (ह.पु.२/१२८) इस पद्यभाग में अचेलत्व को मुनि का मूलगुण बतलाया गया है। इसके अतिरिक्त "नवस्थानेषु निर्ग्रन्थाः रूपभेदविवर्जिताः" (ह.पु./ ३/८४) इस उक्ति में छठे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के निर्ग्रन्थों में वेशभेद का अभाव प्ररूपित किया गया है अर्थात् सभी मुनि समान रूप से निर्ग्रन्थवेशधारी कहे गये हैं। इन वचनों से सग्रन्थमुक्ति का निषेध हो जाता है। अतः 'सग्रन्थलिंग से मुक्ति होती भी है और नहीं भी' इस कथन के औचित्य की सिद्धि या तात्पर्य की उपपत्ति प्रत्युत्पन्न और भूतग्राही नयों के अध्याहार से ही संभव है, अन्यथा नहीं। अतः पं. पन्नालाल जी साहित्याचार्य ने जो व्याख्या की है, वह सर्वार्थसिद्धिकार और उनके अनुगामी हरिवंशपुराणकार के अभिप्राय के अनुरूप ही की है। अतः पण्डित जी आक्षेप के पात्र नहीं हैं। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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