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________________ ७०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१ / प्र०२ ___ तथा भूतपूर्वनय, भूतग्राहीनय, भूतप्रज्ञापननय और भूतार्थग्राहीनय, ये सब पर्यायवाची हैं, यह सर्वार्थसिद्धि के उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है। भूतार्थग्राहिनय और भूतार्थनय में जमीन-आसमान का अंतर है। भूतार्थनय का अर्थ कुन्दकुन्द के अनुसार निश्चयनय ही है, किन्तु भूतार्थग्राहीनय का अर्थ निश्चयनय नहीं है, अपितु 'भूतकालीन अर्थ (विषय या पर्याय) को ग्रहण करनेवाला' ही है, जैसा कि सर्वार्थसिद्धि के उपर्युक्त उद्धरणों से ज्ञात होता है। पंडित पन्नालाल जी ने अनुवाद में 'भूतार्थग्राहिनय' शब्द का ही प्रयोग किया है, 'भूतार्थनय' शब्द का नहीं। अतः 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक को अपनी ही भूल सुधारने की आवश्यकता है। ___ हरिवंशपुराण से स्त्रीमुक्ति, सवस्त्रमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, परतीर्थिकमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध करनेवाले जो बहुसंख्यक प्रमाण पूर्व में उद्धृत किये गये हैं, उनमें से प्रत्येक के द्वारा सग्रन्थमुक्ति का निषेध होता है। अतः ग्रन्थ में न केवल सग्रन्थमुक्ति के प्रतिपादन का अभाव है, अपितु उसका बहुशः निषेध किया गया है। इससे स्पष्ट है कि यापनीयपक्षधर पूर्वोक्त विद्वान् और विदुषी ने हरिवंशपुराण को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए जिस हेतु का प्रयोग किया है, वह असत्य है। यापनीयपक्ष हरिवंशपुराणकार ने ग्रन्थ के आरंभ में समन्तभद्र, देवनन्दी आदि दिगम्बर आचार्यों के साथ सिद्धसेन आदि श्वेताम्बर तथा इन्द्र (नन्दी), वज्रसूरि, रविषेण, वराङ्ग आदि यापनीय आचार्यों का आदरपूर्वक उल्लेख किया है। इससे यही सिद्ध होता है कि हरिवंशपुराण के कर्ता जिनसेन उदार यापनीयपरम्परा से सम्बद्ध रहे होंगे। (जै.ध.या. स./पृ. १७४)। दिगम्बरपक्ष इनमें से न तो सिद्धसेन श्वेताम्बर थे, न ही वराङ्गचरित के कर्ता जटासिंहनन्दी तथा इन्द्र, वज्रसूरि, रविषेण आदि यापनीय थे। ये सभी दिगम्बर थे। यह इसी ग्रन्थ में सिद्ध किया गया है। अतः हरिवंशपुराणकार को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया उपर्युक्त हेतु असत्य है। यापनीयपक्ष हरिवंशपुराण में आर्यिकाओं का स्पष्टरूप से उल्लेख मिलता है। आर्यिकासंघ की व्यवस्था यापनीय है। जो परम्परा स्त्री में महाव्रत के आरोपण को ही असंभव Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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