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________________ अ०२१/ प्र०२ हरिवंशपुराण / ७०९ मानती हो, उसमें आर्यिकासंघ की व्यवस्था सम्भव ही नहीं है। (जै.ध.या. स./ पृ.१७६)। दिगम्बरपक्ष निश्चयमहाव्रतों के आरोपण को असंभव मानते हुए भी दिगम्बरपरम्परा में आर्यिकासंघ की व्यवस्था है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आर्यिका के लिंग का वर्णन सुत्तपाहुड की इस गाथा में किया है लिंगं इच्छीणं हवदि भुंजइ पिंडं सुएयकालम्मि। __ अज्जिय वि एक्कवत्था वत्थावरणेण भुंजेइ॥ २२॥ __अनुवाद-"तीसरा लिंग स्त्रियों का है। इस लिंग को धारण करनेवाली स्त्री दिन में एक ही बार आहार ग्रहण करती है। वह आर्यिका कहलाती है और एक वस्त्रधारण करती है तथा वस्त्रधारण किये हुए ही भोजन करती है।" दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार में आर्यिकासंघ की आचारसंहिता का विस्तार से वर्णन किया गया है। हरिवंशपुराण दिगम्बरग्रन्थ है, इसलिए उसमें आर्यिका को दिगम्बरपरम्परानुसार ही एकाम्बरसंवीता (एकवस्त्रधारण करनेवाली) कहा गया है।५ श्वेताम्बरपरम्परा में तो भिक्खुणी अनेकाम्बरसंवीता होती है, जिसका अनुकरण यापनीयपरम्परा में हुआ था। ___ इस प्रकार दिगम्बरपरम्परा में आर्यिकापरम्परा का सद्भाव है, अतः हरिवंशपुराणकार को यापनीय सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया उक्त हेतु असत्य है। यापनीयपक्ष ___ हरिवंशपुराण में श्वेताम्बरपरम्परा में उपलब्ध अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत के भेदों का उल्लेख है। श्वेताम्बरों के अतिरिक्त यापनीय ही इन ग्रन्थों को प्रमाण मानते थे। अतः हरिवशंपुराणकार यापनीय सिद्ध होते हैं। (जै.ध. या.स./पृ. १७३-१७४)। दिगम्बरपक्ष श्रुत के ये भेद दिगम्बरपरम्परा में भी प्रमाण माने गये हैं, केवल अंगबाह्य श्रुत के जो भेद हैं, उनके नामों में कुछ भिन्नता है। इसका वर्णन पूर्व में किया जा चुका २५. सुता चेटकराजस्य कुमारी चन्दना तदा। धौतैकाम्बरसंवीता जातार्याणां पुरःसरी॥ २/७० ॥ हरिवंशपुराण। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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