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________________ ४०६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६ / प्र०४ बारस अणु. – अद्धवमसरणमेगत्तमण्णसंसारलोगमसुचित्तं। . आसवसंवरणिजरधम्मं बोहिं च चिंतेजो॥ २॥ भग.-आरा. - अद्धवमसरणमेगत्तमण्ण-संसार-लोयमसुइत्तं। आसवसंवरणिज्जरधम्मं बोधिं च चिंतिज॥ १७१०॥ स्थानांग - अणिच्चाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा एगत्ताणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा। अवायाणुप्पेहा ४/१/२४७, णिजरे १/१६, लोगे १/५। सूत्रकृतांग - अण्णत्ते, असुइअणुप्पेहा। २/१/१३। बोहिदुल्लहे। १/१ । उत्तरा.सूत्र - संवरे। २३/७१ । धम्मे। १०/१८१६१ यहाँ हम देखते हैं कि श्वेताम्बर-आगमों में कहीं भी एक साथ बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन नहीं है। कहीं पाँच का वर्णन है, कहीं दो का, कहीं एक का। यद्यपि इस प्रकार बारह अनुप्रेक्षाओं की संख्या पूरी हो जाती है, तथापि जैसे तत्त्वार्थसूत्र में एक साथ वर्णित हैं, वैसे एक साथ वर्णित नहीं है, जब कि बारस-अणुवेक्खा और भगवती-आराधना में एक साथ वर्णित हैं। इसके अलावा श्वेताम्बर-आगमों में आस्रवानुप्रेक्षा का नाम नहीं है, उसके स्थान पर अपायानुप्रेक्षा का नाम है। इस तरह नाम और रचना की दृष्टि से तत्त्वार्थ के अनुप्रेक्षासूत्र की जितनी निकटता बारस-अणुवेक्खा और भगवती-आराधना के साथ है, उतनी श्वेताम्बर-आगमों के साथ नहीं है। डॉ० सागरमल जी लिखते हैं-"प्रकीर्णकों के अन्तर्गत मरणविभक्ति एक प्राचीन प्रकीर्णक है, इसकी ५७० से लेकर ६४० तक की ७१ गाथाओं में बारह भावनाओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। मरणविभक्ति की भावनासम्बन्धी इन ७१ गाथाओं में भी अनेक भगवती-आराधना और मूलाचार में उपलब्ध होती हैं। अतः तत्त्वार्थभाष्य, भगवती-आराधना और मूलाचार में, जो साम्य परिलक्षित होता है, वह इन तीनों के कर्ताओं द्वारा आगमिक ग्रन्थों के अनुसरण के कारण ही है। भगवती-आराधना और मूलाचार यापनीयग्रन्थ हैं और यापनीय आगम मानते थे। मरणविभक्ति तत्त्वार्थभाष्य से प्राचीन है। वस्तुतः यापनीय (ग्रन्थों) और तत्त्वार्थभाष्य में जो समरूपता है, उसका कारण यह है कि उन दोनों का मूल स्रोत एक ही है।" (जै.ध.या.स./ पृ. ३५०-३५८)। डॉक्टर साहब का यह कथन निम्नलिखित कारणों से समीचीन नहीं हैं १६१. तत्त्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वय / पृ. २०२-२०३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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