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________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७९ जाने का वर्णन है (पृ.११५)। इनमें से अचेलत्व को यापनीय-परम्परा में मुनियों का मूलगुण नहीं माना गया है, क्योंकि उसमें वस्त्रधारी को भी मुनि कहा गया है। अतः यापनीयपरम्परा में अचेलत्व मूलगुण न होकर वैकल्पिक गुण है। तथा उपलब्ध यापनीयग्रन्थों में मुनि को पाणितलभोजी तो कहा गया है, किन्तु खड़े होकर भोजन करनेवाला, क्षितिपर शयन करनेवाला तथा स्नान और दन्तधावन न करनेवाला नहीं कहा गया है। अतः यापनीय-मुनियों में इन मूल-गुणों का होना भी अनिर्णीत है। २. अपरिग्रह-महाव्रत के स्वरूप का वर्णन करते हुए निम्नलिखित वस्तुओं को श्रमण के अयोग्य बतलाकर उन्हें ग्रहण करने का निषेध किया गया है "पंचमे महव्वदे हिरण्णं, धणं, धण्णं, खेत्तं, वत्थु, कोसं, बलं, वाहणं, सयणं, जाणं, जुगं, गहुँ, रहं, संदणं सिबियं, गवेडयं, अंडजं, तसरिचीवरं, बोंडजं, अविबालग्गकोडिमेत्तं पि असमणपाउग्गं।" (पृ.१२९-१३०)। अनुवाद-"पञ्चम महाव्रत में सोना-चाँदी, धन, धान्य, खेत, घर, कोश (भाण्डागार), बल (सेना), वाहन (हस्ति, अश्व आदि), शकट (बैलगाड़ी), यान (पालकी), जुग (डोला)१३, गदु (गादी-गद्दा)१४ रथ (उत्तमघोड़ोंवाला रथ), स्यन्दन (सामान्य घोड़ोंवाला रथ),५ शिबिका, भेड़ (एडक) के ऊन से बने वस्त्र, रेशमीवस्त्र (अंडज),१६ तसर (एक विशेष प्रकार के धागे) से बने चीवर (वस्त्र)१६ और सूतीवस्त्र (बोंडज)१६ इन चीजों का भेड़ के बाल की नोंक के बराबर भी परिग्रह श्रमण के योग्य नहीं होता। यह अश्रमणों (गृहस्थों) का परिग्रह है। (अतः मुनि को उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए)।" इस कथन में किसी भी प्रकार के वस्त्र का एक धागा भी ग्रहण करना अपरिग्रह महाव्रत के विरुद्ध बतलाया गया है। किन्तु यापनीयपरम्परा में अपवादरूप से वस्त्रधारण करने पर भी मुनि को अपरिग्रह-महाव्रतधारी माना गया है। अतः उपर्युक्त कथन यापनीयमत के विरुद्ध है। इससे सिद्ध है कि 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' यापनीयग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। ३. 'प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी' के अन्तर्गत बृहत्प्रतिक्रमण में कहा गया है-"सग्गथं (बाह्याम्यन्तरग्रन्थसहितमात्मनः स्वरूपं व्युत्सृजामि), णिग्गंथं (तद्विपरीतं निर्ग्रन्थस्वरूप १३. "जुगं दोलिकाम्।" प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/ पृ. १३०। १४. "गदुं शय्यापालकम् , उपरि छादितः शकटविशेषः।" प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/पृ. १३० । १५. "उत्तमाश्वबाह्यो रथः, सामान्याश्वबाह्यो रथः स्यन्दनः।" प्रतिक्रमणग्रन्थत्रयी/पृ. १३० । १६. पाइअ-सद्द-महण्णवो। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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