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४०८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०४
१. तत्त्वार्थसूत्रगत बाईस परीषहों में अदर्शनपरीषह है-"प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि"
९/९। २. दिगम्बरग्रन्थ मूलाचार में वर्णित बाईस परीषहों में भी अदर्शनपरीषह का ही
उल्लेख है-"तह चेव पण्णपरिसह अण्णाणमदंसणं खमणं।" २५५ । ३. किन्तु श्वेताम्बर-आगम समवायांग में उसके स्थान में दर्शनपरीषह है__ "अण्णाणपरीसहे दंसणपरीसहे।" समवाय २२। ४. इसके अतिरिक्त समवायांग (समवाय २२) के अचेलपरीषह के स्थान पर
तत्त्वार्थसूत्र में नाग्न्यपरीषह शब्द है, जो दिगम्बरपरम्परा के सर्वथा वस्त्र
रहितत्व को स्पष्टतः सूचित करता है।'
इन उदाहरणों से सिद्ध है कि तत्त्वार्थ का परीषहसूत्र दिगम्बरपरम्परा की ओर झुका हुआ है।
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१. तत्त्वार्थ के बाह्यतपसूत्र (९/१९) में विविक्तशय्यासन नाम का तप है। २. दिगम्बरग्रन्थ भगवती-आराधना१६३ तथा मूलाचार ६४ में भी विविक्तशय्यासन
ही नाम है। ३. किन्तु श्वेताम्बर-आगम व्याख्याप्रज्ञप्ति (२५/७/२०८) में उसके स्थान पर
पडिसंलीणया (प्रतिसंलीनता) नाम का तप है, यद्यपि उसका अर्थ विविक्त
शय्यासन ही बतलाया गया है। इस तरह तत्त्वार्थ का बाह्यतपसूत्र भी दिगम्बरग्रन्थों से निकटता दर्शाता है।
३७ तत्त्वार्थसूत्र - ज्ञानदर्शनचारित्रोपचाराः। ९/२३ । भावपाहुड - विणयं पंचपयारं। १०२। दसणपाहुड – दंसणणाणचरित्ते तवविणये णिच्चकाल सुपसत्था। २३ ।
१६३. कायकिलेसो सेज्जा य विवित्ता बाहिरतवो सो॥ २१०॥ भगवती-आराधना / पृ. २३६ । १६४. विवित्तसयणासणं छटुं॥ ३४६ ॥ मूलाचार / पृ. २८३ ।
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