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________________ अ० १८ / प्र० ३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४५ बतलानेवाला जब विद्यानन्द का कोई स्पष्ट उल्लेख है ही नहीं और उसकी कल्पना के आधार पर जो निर्णय किया गया था, वह गिर गया है, तब पोषक के रूप में उपस्थित की गई दलील भी व्यर्थ पड़ जाती है, क्योंकि जब वह दीवार ही नहीं रही, जिसे लेप लगाकर पुष्ट किया जाय, तब लेप व्यर्थ ठहरता है, उसका कुछ अर्थ नहीं रहता । और इसलिए पंडित जी की वह दलील विचार के योग्य नहीं रहती । " यद्यपि पं० महेद्रकुमार जी के शब्दों में, " ऐसे नकारात्मक प्रमाणों से किसी आचार्य के समय का स्वतन्त्र भाव से साधन - बाधन नहीं होता, " फिर भी विचार की एक कोटि उपस्थित हो जाती है । सम्भव है कल को पं० सुखलाल जी अपनी दलील को स्वतन्त्र प्रमाण के रूप में भी उपस्थित करने लगें, जिसका उपक्रम उन्होंने "समन्तभद्र की जैनपरम्परा को उस समय की नई देन" जैसे शब्दों को बाद में जोड़कर किया है और साथ ही 'समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंश में स्पर्श भी न करने' तक की बात भी वे लिख गये हैं, ८२ अतः उसपर, द्वितीय साधन पर विचार कर लेना ही आवश्यक जान पड़ता है। और उसी का इस लेख में आगे प्रयत्न किया जाता है । “सबसे पहले मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि यद्यपि किसी आचार्य के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के सभी विषयों को अपने ग्रन्थ में उल्लेखित अथवा चर्चित करे, ऐसा करना या न करना ग्रंथकार की रुचिविशेष पर अवलम्बित है। चुनाँचे ऐसे बहुत से प्रमाण उपस्थित किये जा सकते हैं, जिनमें पिछले आचार्यों ने पूर्ववर्ती आचार्यों की कितनी ही बातों को अपने ग्रन्थों में छुआ कभी नहीं, इतने पर भी पूज्यपाद के सब ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। उनके सारसंग्रह नाम के एक खास ग्रन्थ का धवला में नयविषयक उल्लेख ८३ मिलता है और उस पर से वह उनका महत्त्व का स्वतन्त्र ग्रन्थ जान पड़ता है। बहुत सम्भव है कि उसमें उन्होंने सप्तभंगी की भी विशद चर्चा की हो । उस ग्रन्थ की अनुपलब्धि की हालत में यह नहीं कहा जा सकता कि पूज्पाद ने 'सप्तभंगी' का विशद कथन नहीं किया अथवा उसे छुआ तक नहीं । “इसके सिवाय, 'सप्तभंगी' एकमात्र समन्तभद्र की ईजाद अथवा उन्हीं के द्वारा आविष्कृत नहीं है, बल्कि उसका विधान पहले से चला आता है और वह श्री कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थों में भी स्पष्टरूप से पाया जाता है, जैसा कि निम्न दो गाथाओं से प्रकट है ८२. देखिये, न्यायकुमुदचन्द्र / द्वितीय भाग का 'प्राक्कथन' / पृ. १८ । ८३.‘“तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैः - 'अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय' इति ।" धवला / षट्खण्डागम / पु. ९ / ४,१,४५ / पृ.१६७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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