SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 600
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०३ "इन वाक्यों पर से मुझे यह जानकर बड़ा ही आश्चर्य होता है कि पं० सुखलाल जी जैसे प्रौढ़ विद्वान् भी कच्चे आधारों पर ऐसे सुनिश्चित वाक्यों का प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं! सम्भवतः इसकी तह में कोई गलत धारणा ही काम करती हुई जान पड़ती है, अन्यथा जब विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा और अष्टसहस्त्री में कहीं भी उक्त मंगलश्लोक के पूज्यपादकृत होने की बात लिखी नहीं, तब उसे 'सर्वथा स्पष्ट रूप से लिखी' बतलाना कैसे बन सकता है? अस्तु। "अब रही दूसरे साधन की बात, पं० महेन्द्रकुमार जी इस विषय में पं० सुखलाल जी के एक युक्तिवाक्य को उद्धृत करते और उसका अभिनन्दन करते हुए, अपने उसी जैन-सिद्धान्तभास्कर-वाले लेख के अन्त में, लिखते हैं "श्रीमान् पंडित सुखलाल जी सा० का इस विषय में यह तर्क "कि यदि समन्तभद्र पूर्ववर्ती होते, तो समन्तभद्र की आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृति का उल्लेख अपनी सर्वार्थसिद्धि आदि कृतियों में किए बिना न रहते" हृदय को लगता है।" ___ "इसमें पं० सुखलाल जी के जिस युक्ति-वाक्य का डबल इनवर्टेड कामाज के भीतर उल्लेख है, उसे पं० महेन्द्रकुमार जी ने अकलंकग्रंथत्रय और न्यायकुमुदचन्द्रद्वितीय भाग के प्राक्कथनों में देखने की प्रेरणा की है। तदनुसार दोनों प्राक्कथनों को एक से अधिक बार देखा गया, परन्तु खेद है कि उनमें कहीं भी उक्त वाक्य उपलब्ध नहीं हुआ! न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना में यह वाक्य कुछ दूसरे ही शब्दपरिवर्तनों के साथ दिया हुआ है। और वहाँ किसी 'प्राक्कथन' को देखने की प्रेरणा भी नहीं की गई। अच्छा होता यदि 'भास्कर' वाले लेख में भी किसी प्राक्कथन को देखने की प्रेरणा न की जाती अथवा पं० सुखलाल जी के तर्क को उन्हीं के शब्दों में रक्खा जाता और या उसे डबल इनवर्टेड कामाज के भीतर न दिया जाता। अस्तु, इस विषय में पं० सुखलाल जी ने जो तर्क अपने दोनों प्राक्कथनों में उपस्थित किया है. उसी के प्रधान अंश को ऊपर साधन नं०२ में संकलित किया गया है. और उसमें पंडित जी के खास शब्दों को इनवर्टेड कामाज के भीतर दे दिया है। इस पंडित जी के तर्क की स्पिरिट अथवा रूपरेखा को भले प्रकार समझा जा सकता है। पंडित जी ने अपने पहले प्राक्कथन में उपस्थित तर्क की बावत दूसरे प्राक्कथन में यह स्वयं स्वीकार किया है कि-"मेरी वह (सप्तभंगी-वाली) दलील विद्यानन्द के स्पष्ट उल्लेख के आधार पर किए गए निर्णय की पोषक है। और उसे मैंने वहाँ स्वतन्त्र प्रमाण के रूप से पेश नहीं किया है।" परन्तु उक्त मंगलश्लोक को 'पूज्यपादकृत' ८१. यथा-"यदि समन्तभद्र पूज्यपाद के प्राक्कालीन होते, तो वे अपने इस युगप्रधान आचार्य की आप्तमीमांसा जैसी अनूठी कृति का उल्लेख किये बिना नहीं रहते।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy