SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 599
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१८ / प्र०३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४३ इसी से पं० महेन्द्रकुमार जी को यह स्वीकार करने के लिये बाध्य होना पड़ा है कि आ० विद्यानन्द ने उक्त मंगलश्लोक को सूत्रकार उमास्वाति-कृत बतलाया है, जैसा कि अनेकान्त की पिछली किरण में 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' शीर्षक उनके उत्तर लेख से प्रकट है। इस लेख में उन्होंने अब विद्यानन्द के कथन पर सन्देह व्यक्त किया है और यह सूचित किया है कि विद्यानन्द ने अपनी अष्टसहस्री में अकलंक की अष्टशती के 'देवागमेत्यादिमङ्गलपुरस्सरस्तव' वाक्य का सीधा अर्थ न करके कुछ गलती खाई है और उसी का यह परिणाम है कि वे उक्त मंगलश्लोक को उमास्वाति की कृति बतला रहे हैं, अन्यथा उन्हें इसके लिये कोई पूर्वाचार्यपरम्परा प्राप्त नहीं थी। उनके इस लेख का उत्तर न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी ने अपने द्वितीय लेख में दिया है, जो इसी किरण में अन्यत्र, 'तत्त्वार्थसूत्र का मंगलाचरण' इस शीर्षक के साथ, प्रकाशित हो रहा है। जब पं० महेन्द्रकुमार जी विद्यानन्द के कथन पर सन्देह करने लगे हैं, तब वे यह भी असन्दिग्धरूप में नहीं कह सकेंगे कि समन्तभद्र ने उक्त मंगलस्तोत्र को लेकर ही 'आप्तमीमांसा' रची है, क्योंकि उसका पता भी विद्यानन्द के आप्तपरीक्षादि ग्रन्थों से चलता है। चुनाँचे वे अब इस पर भी सन्देह करने लगे है, जैसा कि उनके निम्न वाक्य से प्रकट है __ "यह एक स्वतन्त्र प्रश्न है कि स्वामी समन्तभद्र ने 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक पर आप्तमीमांसा बनाई है या नहीं।" __ "ऐसी स्थिति में पं० सुखलाल जी द्वारा अपने प्राक्कथनों में प्रयुक्त निम्न वाक्यों का क्या मूल्य रहेगा, इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं "पूज्यपाद के द्वारा स्तुत आप्त के समर्थन में ही उन्होंने (समन्तभद्र ने) आप्तमीमांसा लिखी है' यह बात विद्यानन्द ने आप्तपरीक्षा तथा अष्टसहस्री में सर्वथा स्पष्टरूप से लिखी है।" (अकलंकग्रन्थत्रय / प्राक्कथन / पृ.८)। "मैंने अकलंकग्रन्थत्रय के ही प्राक्कथन में विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा एवं अष्टसहस्री के स्पष्ट उल्लेखों के आधार पर यह निःशंक रूप से बतलाया है कि स्वामी समन्तभद्र पूज्यपाद के आप्तस्तोत्र के मीमांसाकार हैं, अत एव उनके उत्तरवर्ती ही हैं।" "ठीक उसी तरह से समन्तभद्र ने भी पूज्यपाद के 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाले मंगलपद्य को लेकर उसके ऊपर आप्तमीमांसा रची है।" "पूज्यपाद का 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' वाला सुप्रसन्न पद्य उन्हें (समन्तभद्र को) मिला, फिर तो उनकी प्रतिभा और जग उठी।" (न्यायकुमुदचन्द्र-द्वितीयभाग/प्राक्कथन/ पृ.१७-१९)। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy