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________________ ५४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ३ समय की नई देन रही," अपने 'सर्वार्थसिद्धि' आदि किसी ग्रन्थ में उपयोग किये बिना न रहते। चूँकि पूज्यपाद के ग्रन्थों में " समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंश में स्पर्श भी" नहीं पाया जाता, अत एव समन्तभद्र पूज्यपाद के 'उत्तरवर्ती ही हैं। " इन दोनों साधनों में से प्रथम साधन को कुछ विशद तथा पल्लवित करते हुए पं० महेन्द्रकुमार जी ने 'जैनसिद्धान्तभास्कर' ( भाग ९ / कि०१ ) में अपना जो लेख प्रकाशित कराया था, उसमें विद्यानन्द की आप्तपरीक्षा के 'श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्राद्भुतसलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भकाले' इत्यादि पद्य' ८० को देकर यह बतलाना चाहा था कि विद्यानन्द इसके द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि 'मोक्षमार्गस्त नेतारम्' इत्यादि जिस मंगलस्तोत्र का इसमें संकेत है उसे तत्त्वार्थशास्त्र की उत्पत्ति का निमित्त बतलाते समय या उसकी प्रोत्थान -भूमिका बाँधते समय पूज्यपाद ने रचा है। और इसके लिये उन्हें 'प्रोत्थानारम्भकाले' पद की अर्थविषयक बहुत कुछ खींचतान करना पड़ी थी, शास्त्रावताररचितस्तुति तथा तत्त्वार्थशास्त्रादौ जैसे स्पष्ट पदों के सीधे सच्चे अर्थ को भी उसी प्रोत्थानारम्भकाले पद के कल्पित अर्थ की ओर घसीटने की प्रेरणा के लिये प्रवृत्त होना पड़ा था और खींचतान की यह सब चेष्टा पं० सुखलाल जी के उस नोट के अनुरूप थी, जिसे उन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भाग के 'प्राक्कथन' (पृ.१७) में अपने बुद्धि-व्यापार के द्वारा स्थिर किया था। परन्तु 'प्रोत्थानारम्भकाले' पद के अर्थ की खींचतान उसी वक्त तक कुछ चल सकती थी, जब तक विद्यानन्द का कोई स्पष्ट उल्लेख इस विषय का न मिलता कि वे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगलस्तोत्र को किसका बतला रहे हैं। चुनाँचे न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जी कोठिया और पं० रामप्रसाद जी शास्त्री आदि कुछ विद्वानों ने जब पं० महेन्द्रकुमार जी की भूलों तथा गलतियों को पकड़ते हुए अपने उत्तर लेखों द्वारा विद्यानन्द के कुछ अभ्रान्त उल्लेखों को सामने रक्खा और यह स्पष्ट करके बतला दिया कि विद्यानन्द ने उक्त मंगलस्तोत्र को सूत्रकार उमास्वातिकृत लिखा है और उनके तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण बतलाया है, तब उस खींचतान की गति रुकी तथा बन्द पड़ी। और इसलिये उक्त मंगलस्तोत्र को पूज्यपादकृत मानकर तथा समन्तभद्र को उसी का मीमांसाकार बतला कर निश्चितरूप में समन्तभद्र को पूज्यपाद के बाद का (उत्तरवर्ती) विद्वान् बतलानेरूप कल्पना की जो इमारत खड़ी की गई थी, वह एकदम धराशायी हो गई है। और ८०. श्रीमत्तत्वार्थ - शास्त्राद्भुत सलिल-निधेरिद्ध-रत्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भकाले सकलमलभिदे शास्त्रकारैः कृतं यत् । स्तोत्रं तीर्थोपमानं पृथितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तत् विद्यानन्दैः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्यार्थसिद्धयै ॥ १२३ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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