SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 602
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०३ अस्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं। पज्जायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा॥ २/२३॥ प्रवचनसार सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं। दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि॥ १४॥ पंचास्तिकाय "आचार्य कुन्दकुन्द पूज्यपाद से बहुत पहले हो गये हैं। पूज्यपाद ने उनके मोक्षप्राभृतादि ग्रन्थों का अपने समाधितंत्र में बहुत कुछ अनुसरण किया है। कितनी ही गाथाओं को तो अनुवादितरूप में ज्यों का त्यों रख दिया है ८४ और कितनी ही गाथाओं को अपनी सर्वार्थसिद्धि में 'उक्तं च' आदि रूप से उद्धृत किया है, जिसका एक नमूना ५ वें अध्याय के १६ वें सूत्र की टीका में उद्धृत पंचास्तिकाय की निम्न गाथा है अण्णोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स। मेलंता वि य णिच्चं सगं सभावं ण विजहंति॥ ७॥ "ऐसी हालत में पूज्यपाद के द्वारा सप्तभंगी का स्पष्ट शब्दों में उल्लेख न होने पर भी जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि आ० कुन्दकुन्द पूज्यपाद के बाद हुए हैं, वैसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्राचार्य पूज्यपाद के बाद हुए हैं, उत्तरवर्ती हैं। और न यही कहा जा सकता है कि सप्तभंगी एकमात्र समन्तभद्र की कृति है, उन्हीं की जैनपरम्परा को 'नई देन' है। ऐसा कहने पर आचार्य कुन्दकुन्द को समन्तभद्र के भी बाद का विद्वान कहना होगा. और यह किसी तरह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता, मर्करा का ताम्रपत्र और अनेक शिलालेख तथा ग्रन्थों के उल्लेख इसमें प्रबल बाधक हैं। अतः पं० सुखलाल जी की सप्तभंगीवाली दलील ठीक नहीं है, उससे उनके अभिमत की सिद्धि नहीं हो सकती। "अब मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि पं० सुखलाल जी ने अपने साधन (दलील) के अंगरूप में जो यह प्रतिपादन किया है कि 'पूज्यपाद ने समन्तभद्र की असाधारण कृतियों का किसी अंश में स्पर्श भी नहीं किया' वह अभ्रान्त न होकर वस्तुस्थिति के विरुद्ध है, क्योंकि समन्तभद्र की उपलब्ध पाँच असाधारण कृतियों में से आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, स्वयंभूस्तोत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार नाम की चार ८४. देखिये, वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित 'समाधितंत्र' की प्रस्तावना / पृ. ११,१२। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy