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________________ अ०१८ / प्र०३ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५४७ कृतियों का स्पष्ट प्रभाव पूज्यपाद की 'सर्वार्थसिद्धि' पर पाया जाता है, जैसा कि अन्तःपरीक्षण द्वारा स्थिर की गई नीचे की कुछ तुलना पर से प्रकट है। इस तुलना में रक्खे हुए वाक्यों पर से विज्ञपाठक सहज ही में यह जान सकेंगे कि आ० पूज्यपाद स्वामी ने समन्तभद्र के प्रतिपादित अर्थ को कहीं शब्दानुसरण के, कहीं पदानुसरण के, कहीं वाक्यानुसरण के, कहीं अर्थानुसरण के, कहीं भावानुसरण के, कहीं उदाहरण के, कहीं पर्यायशब्दप्रयोग के, कहीं आदि' जैसे संग्राहकपद-प्रयोग के और कहीं व्याख्यानविवेचनादि के रूप में पूर्णतः अथवा अंशतः अपनाया है, ग्रहण किया है। तुलना में स्वामी समन्तभद्र के वाक्यों को ऊपर और श्री पूज्यपाद के वाक्यों को नीचे भिन्न टाइपों में रख दिया गया है, और साथ में यथावश्यक अपनी कुछ व्याख्या भी दे दी गई है, जिससे साधारण पाठक भी इस विषय को ठीक तौर पर अवगत कर सकें आप्तमीमांसा – नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा। क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्ध्यसंचरदोषतः॥ ५६॥ स्वयंभूस्तोत्र - नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेर्न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः॥ ४३॥ सर्वार्थसिद्धि – तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम्। तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः।---येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते।---ततस्तद्भावेनाऽव्ययं तद्भावाव्ययं नित्यमिति निश्चीयते। तत्तु कथंचिद् वेदितव्यम्। . (५/३१)। "यहाँ पूज्यपाद ने समन्तभद्र के तेदेवेदमिति इस प्रत्यभिज्ञानलक्षण को ज्यों का त्यों अपनाकर इसकी व्याख्या की है, नाऽकस्मात् शब्दों को अकस्मान्न भवति रूप में रक्खा है, तदविच्छिदा के लिए सूत्रानुसार तद्भावेनाऽव्ययं शब्दों का प्रयोग किया है और प्रत्यभिज्ञान शब्द को ज्यों का त्यों रहने दिया है। साथ ही न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः, क्षणिकं कालभेदात् इन वाक्यों के भाव को तत्तु कथंचिद् वेदितव्यं इन शब्दों के द्वारा संगृहीत और सूचित किया है। आप्तमीमांसा - नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते॥ ३७॥ युक्त्यनुशा. - भावेषु नित्येषु विकारहानेर्न कारकव्यापृतकार्ययुक्तिः। न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्षः समन्तदोषं मतमन्यदीयम्॥ ८॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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