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________________ ५४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०३ स्वयम्भूस्तोत्र - न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमत्र युक्तम्॥ २४॥ सर्वार्थसिद्धि - सर्वथा नित्यत्वे अन्यथाभावाभावात् संसारतन्निवृत्ति-कारण __ प्रक्रिया-विरोधः स्यात्। (५/३१/५८६/पृ. २३१) । "यहाँ पूज्यपाद ने नित्यत्वैकान्तपक्षे पद के लिये समन्तभद्र के ही अभिमतानुसार सर्वथा नित्यत्वे इस समानार्थक पद का प्रयोग किया है, विक्रिया नोपपद्यते और विकारहानेः के आशय को अन्यथाभावाभावात् पद के द्वारा व्यक्त किया है और शेष का समावेश संसार-तन्निवृत्तिकारणप्रक्रियाविरोध: स्यात् इन शब्दों में किया है। स्वयंभूस्तोत्र - विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते॥ ५३॥ आप्तमीमांसा - विवक्षा चाऽविवक्षा च विशेष्येऽनन्तधर्मिणि। सतो विशेषणस्याऽत्र नाऽसतस्तैस्तदर्थिभिः॥ ३५॥ सर्वार्थसिद्धि - अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत्। तद्विपरीतमनर्पितम् प्रयोजनाभावात्। सतोऽप्यविवक्षा भवतीत्यु पसर्जनीभूत मनर्पित-मिच्युते। (५ / ३२)। "यहाँ अर्पित और अनर्पित शब्दों की व्याख्या करते हुए समन्तभद्र की 'मुख्य' और 'गुण (गौण)' शब्दों की व्याख्या को अर्थतः अपनाया गया है। मुख्य के लिये प्राधान्य, गुण के लिये उपसर्जनीभूत, विवक्षित के लिये विवक्षया प्रापित और अन्यो गुणः के लिये तद्विपरीतमनर्पितम् जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। साथ ही, 'अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य' ये शब्द विवक्षित के स्पष्टीकरण को लिये हुए हैं-आप्तमीमांसा की उक्त कारिका में जिस अनन्तधर्मिविशेष्य का उल्लेख है और युक्त्यनुशासन की ४६ वीं कारिका में जिसे तत्त्वं त्वनेकान्तमशेषरूपम् शब्दों से उल्लेखित किया है, उसी को पूज्यपाद ने अनेकान्तात्मकवस्तु के रूप में यहाँ ग्रहण किया है और उनका धर्मस्य पद भी समन्तभद्र के विशेषणस्य पद का स्थानापन्न है। इसके सिवाय, दूसरी महत्त्व की बात यह है कि आप्तमीमांसा की उक्त कारिका में जो यह नियम दिया गया है कि विवक्षा और अविवक्षा दोनों ही सत् विशेषण की होती हैं-असत् की नहीं, और जिसको स्वयम्भूस्तोत्र के अविवक्षो न निरात्मकः शब्दों के द्वारा भी सूचित किया गया है, उसी को पूज्यपाद ने सतोऽप्य Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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