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________________ पंचविंश अध्याय बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र इसके दिगम्बरग्रन्थ होने के प्रमाण दिगम्बरमत में भी जिनकल्प-स्थविरकल्प मान्य, किन्तु दोनों नाग्न्यलिंगी ईसा की लगभग १०वीं शताब्दी में हुए बृहत्प्रभाचन्द्र ने उमास्वामीकृत तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर एक और संक्षिप्त तत्त्वार्थसूत्र की रचना की है। यह वस्तुतः उमास्वामीकृत तत्त्वार्थसूत्र का ही संक्षिप्तीकरण है। प्रभाचन्द्र ने अपने नाम के पूर्व 'बृहत्' विशेषण जोड़कर अपने समय के अन्य प्रभाचन्द्रों से पृथक्त्व द्योतित किया है। उन्होंने ग्रन्थ के प्रारंभ में इसे दशसूत्र और अन्त में जिनकल्पिसूत्रनाम दिया है, किन्तु प्रत्येक अध्याय की पुष्पिका में तत्त्वार्थसूत्र नाम से अभिहित किया है। इसमें मात्र १०५ सूत्र हैं। . 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक डॉ० सागरमल जी जैन ने इसे केवल इसलिए यापनीयग्रन्थ माना है कि इसके अन्त में 'इति जिनकल्पिसूत्रं समाप्तम्' लिखा है। लेखक महोदय लिखते हैं "इसके अन्त में दिया गया 'जिनकल्पिसूत्र' विशेषण इसके यापनीय होने का प्रमाण दे देता है। क्योंकि यापनीय श्वेताम्बरों के समान स्थविरकल्प और जिनकल्प दोनों को मान्य करके भी जिनकल्प पर विशेष बल देते हैं। यापनीयग्रन्थ 'भगवतीआराधना' एवं 'मूलाचार' में जिनकल्प और स्थविरकल्प के उल्लेख पाये जाते हैं, इससे यही सिद्ध होता है कि इस तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता प्रभाचन्द्र यापनीयसम्प्रदाय के रहे होंगे। क्योंकि दिगम्बरपरम्परा के आचार्य तो जिनकल्प और स्थविरकल्प ऐसी मान्यता ही स्वीकार नहीं करते हैं। इससे तत्त्वार्थसूत्र का यापनीय प्रभाचन्द्र की कृति होना सुनिश्चित होता है।" (जै.ध.या.स./पृ.२०७)। १. "ऊँ नमः सिद्धम्। अथ दशसूत्रं लिख्यते।" तत्त्वार्थसूत्र / सम्पादक-जुगलकिशोर मुख्तार/वीर सेवा मन्दिर, सहारनपुर/ पृ. १२। २. "इति जिनकल्पिसूत्रं समाप्तम्।" वही/पृ. १६ । ३. "इति श्री बृहत्प्रभाचन्द्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे प्रथमोऽध्यायः।" वही/ पृ. २३। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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