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________________ ७८८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२५ लेखक महोदय इस तथ्य से अनभिज्ञ हैं कि दिगम्बरपरम्परा में भी जिनकल्प और स्थविरकल्प माने गये हैं, किन्तु उनका स्वरूप श्वेताम्बरों एवं यापनीयों द्वारा मान्य स्वरूप से भिन्न है। उक्त परम्पराओं में नग्न एवं पाणितलभोजी मुनियों को जिनकल्पी तथा वस्त्रपात्रधारी मुनियों को स्थविरकल्पी कहा गया है। किन्तु दिगम्बर-परम्परा में जिनकल्पी और स्थविरकल्पी, दोनों प्रकार के मुनि नग्न एवं पाणितलभोजी होते हैं। अन्तर केवल तप में है। इनके स्वरूप का वर्णन द्वितीय एवं चतुर्दश अध्याय में किया जा चुका है। यहाँ त्वरित प्रमाण के लिए वामदेवरचित भावसंग्रह के निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किये जा रहे हैं अर्थतत्कथ्यते वृत्तं जिनकल्पाभिधानकम्। यस्मान्मुक्तिवधूसङ्गो भव्यानां जायते ध्रुवम्॥ २६३॥ अनुवाद-"अब इस जिनकल्प नामक चारित्र का कथन किया जा रहा है, जिससे भव्यों का मुक्तिवधू के साथ निश्चितरूप से संगम होता है।" अन्ये स्थविरकल्पस्था यतयो जिनलिङ्गिनः। सम्यक्त्वामल - दुग्धाम्बु -निमग्नीकृत-चेतसः॥ २७०॥ अनुवाद-"जो अन्य स्थविरकल्पी जिनलिङ्गी मुनि हैं, उनका चित्त सम्यक्त्वरूपी निर्मल दुग्धाम्बु में डूबा रहता है।" आचार्य देवसेन ने भी अपने प्राकृत भावसंग्रह में जिनकल्प और स्थविरकल्प के स्वरूप का वर्णन किया है, जिसका उल्लेख श्वेताम्बरमुनि कल्याणविजय जी द्वारा अपने 'श्रमण भगवान् महावीर' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ (पृष्ठ २८६-२८९) में किया गया भगवती-आराधना में भी जिनकल्प का निर्देश है। उपर्युक्त यापनीयपक्षधर ग्रन्थ लेखक ने उसे यापनीयग्रन्थ कहा है, किन्तु यह सर्वथा मिथ्या है। वह विशुद्ध दिगम्बरग्रन्थ है, यह पूर्व में विस्तार से सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। इसका एक ज्वलन्त प्रमाण यह है कि उसकी अपराजितसूरि-कृत विजयोदयाटीका में जिनकल्पी और स्थविरकल्पी (जिनकल्प में असमर्थ, किन्तु परिहारसंयम में समर्थ), दोनों प्रकार के मुनियों को जिनलिंगधारी (नग्न) कहा गया है। ४. देखिये, अध्याय २ / प्रकरण ३ / शीर्षक ३.२ एवं अध्याय १४/ प्रकरण २/ शीर्षक ८ । ५. किण्णु अधालंदविधी भत्तपइण्णेगिणी य परिहारो। पादोवगमण-जिणकप्पियं च विहरामि पडिवण्णो॥ १५७॥ भगवती-आराधना। ६. देखिये, उपर्युक्त पादटिप्पणी ४। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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