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________________ अ०२५ बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र / ७९१ उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बर-परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। इससे सिद्ध होता है कि बृहत्प्रभाचन्द्र दिगम्बर थे। यदि वे यापनीय होते, तो अपने तत्त्वार्थसूत्र में परीषहसूत्रों को अवश्य रखते, क्योंकि 'एकादश जिने' सूत्र के आधार पर वे श्वेताम्बरों के समान केवली को कवलाहारी सिद्ध कर सकते थे। आचार्य अमृतचन्द्र का अनुसरण बृहत्प्रभाचन्द्र ने उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र के "गुणपर्ययवद् द्रव्यम्" सूत्र में "सहक्रमभावि-गुणपर्ययवद् द्रव्यम्" (५/८) इस प्रकार सहक्रमभावि विशेषण जोड़ा है। यह विशेषण उन्होंने पञ्चास्तिकाय (गाथा ९) की अमृतचन्द्रकृत टीका में प्रयुक्त "तांस्तान् क्रमभुवः सहभुवश्च सद्भावपर्यायान्" इस वाक्यांश से ग्रहण किया है। यह उनके दिगम्बर होने का सूचक है। भाववेदत्रय की स्वीकृति बृहत्प्रभाचन्द्र ने "उत्तरा अष्टचत्वारिंशच्छतम्" (८/४) सूत्र द्वारा कर्मों की १४८ उत्तरप्रकृतियाँ स्वीकार की हैं, जिनमें पुंवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद ये तीन भाववेद भी. हैं। यापनीयमत में ऐसे अलग-अलग तीन वेद स्वीकार न कर एक वेदसामान्य ही स्वीकार किया गया है। इससे भी सिद्ध होता है बृहत्प्रभाचन्द्र दिगम्बर ही हैं, यापनीय नहीं। यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्तिशाकटायन ने अपने ग्रन्थ स्त्रीनिर्वाणप्रकरण में स्वयं के लिए यापनीय-यतिग्रामाग्रणी विशेषण का प्रयोग कर अपना सम्प्रदाय सूचित किया है। यदि तत्त्वार्थसूत्रकार बृहत्प्रभाचन्द्र भी यापनीय होते, तो वे भी अपने नाम के साथ इसी विशेषण का प्रयोग करते। किन्तु, नहीं किया, इससे भी सिद्ध होता है कि वे यापनीय नहीं, अपितु दिगम्बर हैं। ६ 'दशसूत्र' शब्द का प्रयोग इसके अतिरिक्त बृहत्प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थसूत्र को दशाध्यायी होने के कारण दशसूत्र नाम भी दिया है और 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के लेखक ने पृष्ठ २०६ पर स्वयं स्वीकार किया है कि "दिगम्बर-परम्परा में उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र को भी 'दशसूत्र' कहा जाता है।" यह साम्य भी बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरीय होने का अतिरिक्त प्रमाण है। १०. देखिए , अध्याय ११/प्रकरण ४/ शीर्षक ९ षट्खण्डागम का भाववेदत्रय यापनीयों को अमान्य।' Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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