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________________ ७९० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ , अ०२५ यापनीयमत में जिनकल्प पर विशेष बल नहीं प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र को यापनीयकृति माननेवाले उपर्युक्त विद्वान् का कथन है कि "इसके अन्त में दिया गया जिनकल्पिसूत्र विशेषण इसके यापनीय होने का प्रमाण दे देता है, क्योंकि यापनीय श्वेताम्बरों के समान स्थविरकल्प और जिनकल्प दोनों को मान्य करके भी जिनकल्प पर विशेष बल देते हैं।" (जै.ध.या.स./पृ. २०७)। यहाँ "यापनीय जिनकल्प पर विशेष बल देते हैं," ये वचन सत्य नहीं हैं, क्योंकि यापनीयमत में जिनकल्प पर विशेष बल तो तब दिया जाता, जब उसमें जिनकल्प से ही मुक्ति मानी जाती, स्थविरकल्प से नहीं, अथवा यह माना जाता कि जिनकल्प से शीघ्र मोक्ष होता है और स्थविरकल्प के द्वारा देर से। किन्तु ऐसी मान्यता तो यापनीय मत में है ही नहीं। उसमें तो यह माना गया है कि योगचिकित्साविधिन्याय से किसी को जिनकल्प से मुक्ति प्राप्त हो सकती है, किसी को स्थविरकल्प से। यापनीय आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन ने इसका विस्तार से प्रतिपादन अपने स्त्रीनिर्वाणप्रकरण नाम के लघुकाय ग्रन्थ में किया है। इसमें उन्होंने एकान्ततः जिनकल्प से मुक्ति माननेवाले दिगम्बरमत का खण्डन करने का प्रयास और स्थविरकल्प की मोक्षहेतता का जोरदार समर्थन किया है। मलाचार के अध्याय में शाकटायन के वचनों को उद्धृत करते हुए इसका विस्तार से निरूपण किया गया है। अतः यापनीयमत में जिनकल्प पर विशेषबल दिये जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। सच तो यह है कि यापनीय आचार्य शाकाटायन ने 'स्त्रीनिर्वाणप्रकरण' और 'केवलिभुक्तिप्रकरण' लिखकर जिनकल्प को गौण करने और स्थविरकल्प पर बल देने का प्रयत्न किया है। अतः 'बृहत्प्रभाचन्द्रकृत तत्त्वार्थसूत्र का जिनकल्पी विशेषण उसके यापनीयग्रन्थ होने का सूचक है,' यह कथन केवल स्वाभीष्टमत का आरोपण है। जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है, बृहत्प्रभाचन्द्र ने तत्त्वार्थसूत्र को जिनकल्पिसूत्र संज्ञा देकर यह स्पष्ट किया है कि तत्त्वार्थसूत्र केवल जिनकल्प अर्थात् नाग्न्यलिंग से मुक्ति का प्रतिपादक ग्रन्थ है, सचेललिंग से मुक्ति का प्रतिपादक नहीं है। ३ केवलिभुक्ति-भ्रम-परिहारार्थ परीषहसूत्रों का अनुल्लेख प्रस्तुत ग्रन्थ में एक महत्त्वपूर्ण बात और ध्यान देने योग्य है। इसमें उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित परीषहसूत्रों को स्थान नहीं दिया गया है, क्योंकि उनमें एकादश जिने सूत्र है, जिसे श्वेताम्बराचार्यों ने केवलि-कवलाहार का प्रतिपादक बतलाकर ९. देखिये, अध्याय १५/ प्रकरण १/शीर्षक २ 'यापनीय-अमान्य २८ मूलगुणों का विधान' एवं शीर्षक २.१. 'योगचिकित्साविधि- न्याय कर्मसिद्धान्त के प्रतिकूल।' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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