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________________ पञ्चदश अध्याय मूलाचार प्रथम प्रकरण मूलाचार के दिगम्बर ग्रन्थ होने के प्रमाण क मूलाचार का महत्त्व मूलाचार के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए प्रसिद्ध जैन इतिहासकार डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन मूलाचार (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली) के प्रधान-सम्पादकीय में लिखते हैं-"द्वादश अधिकारों में विभक्त, प्राकृत भाषा की १२४३ गाथाओं में निबद्ध, 'मूलाचार' नामक ग्रन्थराज दिगम्बर आम्नाय में मुनिधर्म के प्रतिपादक शास्त्रों में प्रायः सर्वाधिक प्राचीन तथा सर्वोपरि प्रमाणमान्य किया जाता है। अपने समय में उपलब्ध प्रायः सम्पूर्ण जैनसाहित्य का गंभीर आलोडन करनेवाले आचार्य वीरसेन स्वामी ने षट्खण्डागम सिद्धान्त की अपनी सुप्रसिद्ध 'धवला' टीका (७८० ई०) में उक्त मूलाचार के उद्धरण 'आचारांग' नाम से देकर उसका आगमिक महत्त्व प्रदर्शित किया है। शिवार्य (प्रथम शती ई०) कृत 'भगवती-आराधना' की अपराजितसूरि-विरचित विजयोदयाटीका (लगभग ७००. ई०) में मूलाचार के कतिपय उद्धरण प्राप्त हैं और यतिवृषभाचार्य (२री शती ई०) कृत 'तिलोयपण्णत्ति' में भी मूलाचार का नामोल्लेख हुआ है। मूलाचार के सर्वप्रथम ज्ञात टीकाकार आचार्य वसुनन्दी सैद्धान्तिक (लगभग ११०० ई०) ने अपनी 'आचारवृत्ति' नाम्नी संस्कृत टीका की उत्थानिका में घोषित किया है कि ग्रन्थकार श्री वट्टकेराचार्य ने गणधरदेवरचित श्रुत के आचारांग नामक प्रथम अंग का अल्पक्षमतावाले शिष्यों के हितार्थ बारह अधिकारों में उपसंहार करके उसे मूलाचार का रूप दिया है। इन अधिकारों के प्रतिपाद्य विषय हैं क्रमश: "मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यान, संक्षेप प्रत्याख्यान, समयाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारभावना, समयसार, शीलगुणस्तार और पर्याप्ति। वस्तुतः प्रथम अधिकार में निर्देशित मुनिपद के अट्ठाईस मूलगुणों का विस्तार ही शेष अधिकारों में किया गया है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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